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"हमारी कोशिश है, आपकी कशिश बनी रहे"April 17 2022
बेपरवाह !!
राज दौड़ा-दौड़ा अपने पापा के पास गया, उसे आज बहुत कुछ पूछना था, बहुत कुछ जानना था और एक सपोर्ट और अनुभव की आवयश्कता थी ।
उसे आज जॉब इंटरव्यू के लिए पहला ई-मेल आया था।
"पापा ...पापा... वो कुछ बात करनी थी ।"
राज ने हाँफते हुए कहा ।
पापा ने कुछ नही बोला बस उसकी तरफ देखा।
राज ने बताना शुरू किया
"वो जॉब इंटरव्यू के लिए कॉल आया है, दिल्ली निकलना है, कल सुबह 10 बजे का समय दिया है। तो.."
"तो जाओ... "
पापा ने टीवी देखते-देखते ही जवाब दिया और अगला निवाला मुँह में रखकर उसे चबाने लगे।
राज को बिल्कुल समझ नही आया, कि कोई इतना रूड कैसे हो सकता है, मेरा एक प्रोफेशनल डिग्री ले लेना, इतना लंबा 5 साल का सफर कर लेना, और कभी कुछ नही पूछा । स्कूल तक तो, मार भी पड़ती थी, अब तो वो भी बंद हो गयी थी, और डांट वाले दिन भी कॉलेज के साथ जा चुके थे ।
राज को वापस वही दिन याद आया, जब वो कॉलेज के लिए सेलेक्ट हुआ था, तब भी उसने बोला था, कि पापा डीडी बनवाना है, तो पापा ने कहा था - "तो बैंक जाओ भई, मैं यहाँ डीडी थोड़े ना बनाता हूँ ।"
12 पास एक बच्चा बैंक में धूमता रहा, दो बार डीडी गलत बना, फिर जाकर डीडी सही बना, तब भी राज को बहुत गुस्सा आया था। और आज फिर वही ।
राज के पापा, चौथी क्लास के बाद कभी राज के स्कूल नही गए, जब भी बोला गया पैरेंट्स मीटिंग में, तो जवाब आया - "इतना समय नही होता है मेरे पास, और ऐसा क्या बड़ा किया है तूने जो स्कूल जाना है?"
शायद यही प्रूव करने के लिए राज ने स्कूल तो नही, पर अपने सब्जेक्ट में सभी सेक्शंज़ में टॉप किया । यहाँ तक एक बार तो राज को 3 दिन तक रोज क्लास के बाहर खड़ा रहना पड़ा, क्योंकि उसके पापा पैरेंट्स मीटिंग में नहीं गए, अंत में स्कूल ने ही मजबूर होकर क्लास में बिठा लिया। पर उसके पापा स्कूल नही गए।
पर आज राज कुछ ज्यादा गुस्से में था क्योंकि
कैसे जाना है? कहाँ ठहरना है ? खाने का क्या होगा? साथ किसको लेकर जाना है ? कुछ नही पता था, राज पहली बार बाहर जा रहा था, उसे लगा था, पहले खुश होंगे फिर पूछेंगे और बताएंगे, पर कुछ ऐसा नही हुआ । राज खड़े-खड़े यही सोच रहा था, किस मिट्टी का बना है ये आदमी, परवाह नहीं थी तो पैदा ही क्यों किया था?
दोस्तों के पापा मम्मी सब पूछ रहे थे, सब व्यवस्था कर रहे थे, कुछ के तो साथ ही जा रहे थे।
पर यहाँ किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
ये सब सोचते-सोचते राज वही खड़ा देख रहा था उनको और वो बैठे बैठे खाना खा रहे थे और उनका पूरा ध्यान टीवी पर था ।
राज को खड़ा देख, टीवी देखते हुए ही बोले
"कला! (राज की माँ) इसको पैसे दे देना, जो ये बोले " और चुप हो गए ।
राज को लगा टीवी ही फोड़ दूँ ।
गुस्से में पाँव पटकते-पटकते राज ऊपर अपने कमरे के लिए सीढियां चढ़ गया। उसे लगा शायद पापा ने पीछे से उसे देखा, पर ये कन्फर्म करने के लिए राज पीछे नही मुड़ा।
राज को समझ आ गया कि पापा की भी केटेगिरी होती है, मतलब पापा के प्रकार।
जैसे डेड, पापा, पिताजी, और बाप ।
डेड वो होते है जो बच्चो से बहुत मित्रवत व्यवहार करते है
जैसे
Hi dude , what's going on ?
I have arranged all for you, you just go, one of my friend is therefor you, he will take care of all and this is your ticket and listen, break the leg." ये हिंदी भी बोलते है, बस मैंने लिखी नही।
दूसरे होते है पापा
ये लोग पूछते है सब पता करते है, फिर साथ जाते है जैसे आपने देखा होगा, इनके बच्चे एग्जाम देते है, ये पार्क में उनका इंतजार करते है, फिर बच्चों का खाना साथ लाते है, ब्रेक में खाना खिलाते है।"
तीसरे होते है पिताजी
बच्चो से कभी सीधे मुँह बात नही करते, पर उसके लिए कंसर्न होते है, उनके लिए सब कुछ पता करते है, बस जताते नही है, लगे रहते है, उनके बारे में सोचते रहते है, बस बात करने में रूड होते है। बच्चे की बड़ाई नही कर पाते, कभी कभी मार भी देते है।
तीनो ही परवाह करने वाले होते है
अब आते है राज के पापा, ये होते है बाप !
स्कूल तक तो ये हाथ पाँव से बात करते है ।
ये कभी मारते-पीटते नही, ये तसल्ली से सुतते है, और फिर स्कूल के बाद बहुत ही कम शब्दों मे बात करते है। और जब भी बात करते है, आंखों से ही करते है।बच्चे की शादी के बाद थोड़ी बहुत बात करते है, और एक उम्र के बाद मतलब 65 के बाद भी बच्चों से अपेक्षा नहीं जताते। तो बाप लोग न कंसर्न शो करते है, न पूछते है,न बताते है, हर कंवर्सेशन की लास्ट लाइन इनकी होती है । बहस में कभी नहीं पड़ते बस फरमान सुनाते है । पर पता सब रखते है, इनका एक अपना एक स्लीपर सेल होता है, जिसमे स्कूल के पार्किंग गार्ड से लेकर, घर में बहन और मम्मी। पर इन सब में बड़ी बात ये होती है, कि इस पूरी यूनिट को भी ये नहीं पता होता, कि वे एक स्लीपर सेल टीम का पार्ट है।
राज अभी जस्ट जॉब वाले पड़ाव पे था और राज के पास बाप था ।
पहला इंटरव्यू, पहला सफर, पहला किराए का घर, पहला जॉब, सब राज ने खुद से मैनेज किया। यहां तक कि राज ने 2 बीएचके का फ्लैट लिया, कि घर से कभी पापा आयेंगे तो रुकेंगे और इतिफाक देखिए वो दो बार आए भी, एक बार अकेले और एक बार अपनी अर्धांगिनी के साथ, पर राज के फ्लैट को एक बार भी जाकर नही देखा। हाँ, पर अपनी अर्धांगिनी को नही रोका ।
राज को जॉब करते करते 2 साल कब बीते पता ही नही चला । राज के पिताजी ने कभी राज को, एक कॉल भी नही किया । वैसे जयपुर से दिल्ली दूर नही थी, तो राज आता-जाता रहता था ।
इन दो सालो में राज ने सब कुछ संभाल लिया, जॉब का नया प्रोफाइल, उसका प्रेशर, यहां तक कि दो साल मैं ही तीन प्रमोशन ले चुका था, पर राजनीति और कॉरपोरेट की गंदगी, ये उसके समझ के बाहर थी । जो उसे रोज कचौटती थी, वो परेशान रहता था और मन करता था छोड़ दे । अपमान तक तो वो सम्भाल चुका था। पर अब राजनीति उसके स्वाभिमान तक आ चुकी थी। पर पता नही वो क्या था, जो उसे रोके था।
इन सबके बीच राज परेशान रहने लगा, इतना कि अब तो चेहरा भी बोलने लगा था ।
ये रविवार का दिन था, आज राज बहुत ज्यादा परेशान और बैचेन था, नींद भी ठीक से नहीं आई थीं। पर वो सोया तो था ।
उसके ज़हन में बहुत कुछ चल रहा था,जुड़ता-टूटता अतीत का आत्मविश्वास, अनसुलझा वर्तमान, डर में लिपटा भविष्य। बहुत से प्रश्न थे, वो भी ऐसे जो शायद हमेशा निरुत्तर ही रहेंगे।
अभी सुबह के 7:30 बजे थे, तभी राज के मोबाइल पर घंटी बजी, राज ने देखने भर का भी तकल्लुफ नही किया। बजते-बजते फोन कट गया । फिर कुछ देर बाद फोन फिर बजा, राज ने इरिटेट होते हुए फोन उठाया, देखा तो पापा की कॉल आ रही थी, वो एक दम चौंका और चौंककर बैठ गया । उसे पता नही था क्या करे, उसने फटाक से फोन उठाते ही पापा को प्रणाम किया, उधर से पापा की आवाज आई -
"जीते रहो।, अभी तक उठे नही ?, आदतें बिगाड़ ली क्या दिल्ली जाकर ?"
राज ने जवाब दिया
"नही पापा उठ गया था, वो बाथरूम में था, तो लेट फोन उठाया ।"
"अच्छा ठीक है, मान लेते है, और जॉब वो कैसी चल रही है ?" पापा ने पूछा , प्रश्न का लहजा ऐसा था, कि लगा जवाब पता हो।
"पापा सब अच्छा चल रहा है, बढ़िया है ।" राज ने बिना रुके, बिना अटके, जवाब दिया।
वो नही बताना चाहता था कि वो किस दौर से गुजर रहा है, पता नही पापा इन सबको कैसे लेंगे ?, मुझे कैसे जज करेंगे?
पापा गहरी साँस छोड़ते हुए बोले "देखो राज, हमेशा ऐसा नहीं होता कि, हम काम को कर नही सकते, पर कई बार बहुत सी चीजें हमारे स्वभाव को नही समझ आती, तो इसमें गलत सही का प्रश्न नही होता, न ही इस बात का कि हम सफल हुए या विफल । क्योंकि सफलता विफलता के पैमाने अलग-अलग है । जीवन के विषय में स्वयं के निर्णय लिए जाते है, दूसरों की सहमति नहीं । तो ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है, नही समझ आ रहा, तो आ जाना मैं हूँ अभी। " और फिर कुछ देर वो चुप रहे, राज भी कुछ नहीं बोला
और कॉल कट गया ।
राज ये नहीं समझ पाया कि अचानक ये सब कैसे हुआ?
यहाँ भी कोई स्लीपर सेल था?
या मेरा घर पर मम्मी से जॉब के बारे मैं कभी-कभी बताना...
कारण कुछ भी रहा हो, पर राज इस कॉल के बाद बहुत हल्का महसूस कर रहा था। राज उठा लैपटॉप गोद में लिया और रेजिग्नेशन लेटर टाइप करने लगा, पता नहीं क्यों बहुत अच्छा लग रहा था।
ऐसा की जैसे कोई साथ खड़ा है, कंधे पे हाथ रखे और बोल रहा है "क्या यार इतनी छोटी बात के लिए परेशान हो रहा था। इतनी बड़ी ज़िंदगी है कुछ ना कुछ तू कर ही लेगा, मेरा विश्वास है। राज के चेहरे पर मुस्कान थी और आँख़े थी कि, लगातार बहे जा रही थी ।
ये सोच सोच के कि बाप, बाप ही होता है और जैसा भी हो, जब तक है तब तक सर पर एक साया है।
"ये थी, एक छोटी सी बात"
Copyright @ रोहित प्रधान
उसे आज जॉब इंटरव्यू के लिए पहला ई-मेल आया था।
"पापा ...पापा... वो कुछ बात करनी थी ।"
राज ने हाँफते हुए कहा ।
पापा ने कुछ नही बोला बस उसकी तरफ देखा।
राज ने बताना शुरू किया
"वो जॉब इंटरव्यू के लिए कॉल आया है, दिल्ली निकलना है, कल सुबह 10 बजे का समय दिया है। तो.."
"तो जाओ... "
पापा ने टीवी देखते-देखते ही जवाब दिया और अगला निवाला मुँह में रखकर उसे चबाने लगे।
राज को बिल्कुल समझ नही आया, कि कोई इतना रूड कैसे हो सकता है, मेरा एक प्रोफेशनल डिग्री ले लेना, इतना लंबा 5 साल का सफर कर लेना, और कभी कुछ नही पूछा । स्कूल तक तो, मार भी पड़ती थी, अब तो वो भी बंद हो गयी थी, और डांट वाले दिन भी कॉलेज के साथ जा चुके थे ।
राज को वापस वही दिन याद आया, जब वो कॉलेज के लिए सेलेक्ट हुआ था, तब भी उसने बोला था, कि पापा डीडी बनवाना है, तो पापा ने कहा था - "तो बैंक जाओ भई, मैं यहाँ डीडी थोड़े ना बनाता हूँ ।"
12 पास एक बच्चा बैंक में धूमता रहा, दो बार डीडी गलत बना, फिर जाकर डीडी सही बना, तब भी राज को बहुत गुस्सा आया था। और आज फिर वही ।
राज के पापा, चौथी क्लास के बाद कभी राज के स्कूल नही गए, जब भी बोला गया पैरेंट्स मीटिंग में, तो जवाब आया - "इतना समय नही होता है मेरे पास, और ऐसा क्या बड़ा किया है तूने जो स्कूल जाना है?"
शायद यही प्रूव करने के लिए राज ने स्कूल तो नही, पर अपने सब्जेक्ट में सभी सेक्शंज़ में टॉप किया । यहाँ तक एक बार तो राज को 3 दिन तक रोज क्लास के बाहर खड़ा रहना पड़ा, क्योंकि उसके पापा पैरेंट्स मीटिंग में नहीं गए, अंत में स्कूल ने ही मजबूर होकर क्लास में बिठा लिया। पर उसके पापा स्कूल नही गए।
पर आज राज कुछ ज्यादा गुस्से में था क्योंकि
कैसे जाना है? कहाँ ठहरना है ? खाने का क्या होगा? साथ किसको लेकर जाना है ? कुछ नही पता था, राज पहली बार बाहर जा रहा था, उसे लगा था, पहले खुश होंगे फिर पूछेंगे और बताएंगे, पर कुछ ऐसा नही हुआ । राज खड़े-खड़े यही सोच रहा था, किस मिट्टी का बना है ये आदमी, परवाह नहीं थी तो पैदा ही क्यों किया था?
दोस्तों के पापा मम्मी सब पूछ रहे थे, सब व्यवस्था कर रहे थे, कुछ के तो साथ ही जा रहे थे।
पर यहाँ किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
ये सब सोचते-सोचते राज वही खड़ा देख रहा था उनको और वो बैठे बैठे खाना खा रहे थे और उनका पूरा ध्यान टीवी पर था ।
राज को खड़ा देख, टीवी देखते हुए ही बोले
"कला! (राज की माँ) इसको पैसे दे देना, जो ये बोले " और चुप हो गए ।
राज को लगा टीवी ही फोड़ दूँ ।
गुस्से में पाँव पटकते-पटकते राज ऊपर अपने कमरे के लिए सीढियां चढ़ गया। उसे लगा शायद पापा ने पीछे से उसे देखा, पर ये कन्फर्म करने के लिए राज पीछे नही मुड़ा।
राज को समझ आ गया कि पापा की भी केटेगिरी होती है, मतलब पापा के प्रकार।
जैसे डेड, पापा, पिताजी, और बाप ।
डेड वो होते है जो बच्चो से बहुत मित्रवत व्यवहार करते है
जैसे
Hi dude , what's going on ?
I have arranged all for you, you just go, one of my friend is therefor you, he will take care of all and this is your ticket and listen, break the leg." ये हिंदी भी बोलते है, बस मैंने लिखी नही।
दूसरे होते है पापा
ये लोग पूछते है सब पता करते है, फिर साथ जाते है जैसे आपने देखा होगा, इनके बच्चे एग्जाम देते है, ये पार्क में उनका इंतजार करते है, फिर बच्चों का खाना साथ लाते है, ब्रेक में खाना खिलाते है।"
तीसरे होते है पिताजी
बच्चो से कभी सीधे मुँह बात नही करते, पर उसके लिए कंसर्न होते है, उनके लिए सब कुछ पता करते है, बस जताते नही है, लगे रहते है, उनके बारे में सोचते रहते है, बस बात करने में रूड होते है। बच्चे की बड़ाई नही कर पाते, कभी कभी मार भी देते है।
तीनो ही परवाह करने वाले होते है
अब आते है राज के पापा, ये होते है बाप !
स्कूल तक तो ये हाथ पाँव से बात करते है ।
ये कभी मारते-पीटते नही, ये तसल्ली से सुतते है, और फिर स्कूल के बाद बहुत ही कम शब्दों मे बात करते है। और जब भी बात करते है, आंखों से ही करते है।बच्चे की शादी के बाद थोड़ी बहुत बात करते है, और एक उम्र के बाद मतलब 65 के बाद भी बच्चों से अपेक्षा नहीं जताते। तो बाप लोग न कंसर्न शो करते है, न पूछते है,न बताते है, हर कंवर्सेशन की लास्ट लाइन इनकी होती है । बहस में कभी नहीं पड़ते बस फरमान सुनाते है । पर पता सब रखते है, इनका एक अपना एक स्लीपर सेल होता है, जिसमे स्कूल के पार्किंग गार्ड से लेकर, घर में बहन और मम्मी। पर इन सब में बड़ी बात ये होती है, कि इस पूरी यूनिट को भी ये नहीं पता होता, कि वे एक स्लीपर सेल टीम का पार्ट है।
राज अभी जस्ट जॉब वाले पड़ाव पे था और राज के पास बाप था ।
पहला इंटरव्यू, पहला सफर, पहला किराए का घर, पहला जॉब, सब राज ने खुद से मैनेज किया। यहां तक कि राज ने 2 बीएचके का फ्लैट लिया, कि घर से कभी पापा आयेंगे तो रुकेंगे और इतिफाक देखिए वो दो बार आए भी, एक बार अकेले और एक बार अपनी अर्धांगिनी के साथ, पर राज के फ्लैट को एक बार भी जाकर नही देखा। हाँ, पर अपनी अर्धांगिनी को नही रोका ।
राज को जॉब करते करते 2 साल कब बीते पता ही नही चला । राज के पिताजी ने कभी राज को, एक कॉल भी नही किया । वैसे जयपुर से दिल्ली दूर नही थी, तो राज आता-जाता रहता था ।
इन दो सालो में राज ने सब कुछ संभाल लिया, जॉब का नया प्रोफाइल, उसका प्रेशर, यहां तक कि दो साल मैं ही तीन प्रमोशन ले चुका था, पर राजनीति और कॉरपोरेट की गंदगी, ये उसके समझ के बाहर थी । जो उसे रोज कचौटती थी, वो परेशान रहता था और मन करता था छोड़ दे । अपमान तक तो वो सम्भाल चुका था। पर अब राजनीति उसके स्वाभिमान तक आ चुकी थी। पर पता नही वो क्या था, जो उसे रोके था।
इन सबके बीच राज परेशान रहने लगा, इतना कि अब तो चेहरा भी बोलने लगा था ।
ये रविवार का दिन था, आज राज बहुत ज्यादा परेशान और बैचेन था, नींद भी ठीक से नहीं आई थीं। पर वो सोया तो था ।
उसके ज़हन में बहुत कुछ चल रहा था,जुड़ता-टूटता अतीत का आत्मविश्वास, अनसुलझा वर्तमान, डर में लिपटा भविष्य। बहुत से प्रश्न थे, वो भी ऐसे जो शायद हमेशा निरुत्तर ही रहेंगे।
अभी सुबह के 7:30 बजे थे, तभी राज के मोबाइल पर घंटी बजी, राज ने देखने भर का भी तकल्लुफ नही किया। बजते-बजते फोन कट गया । फिर कुछ देर बाद फोन फिर बजा, राज ने इरिटेट होते हुए फोन उठाया, देखा तो पापा की कॉल आ रही थी, वो एक दम चौंका और चौंककर बैठ गया । उसे पता नही था क्या करे, उसने फटाक से फोन उठाते ही पापा को प्रणाम किया, उधर से पापा की आवाज आई -
"जीते रहो।, अभी तक उठे नही ?, आदतें बिगाड़ ली क्या दिल्ली जाकर ?"
राज ने जवाब दिया
"नही पापा उठ गया था, वो बाथरूम में था, तो लेट फोन उठाया ।"
"अच्छा ठीक है, मान लेते है, और जॉब वो कैसी चल रही है ?" पापा ने पूछा , प्रश्न का लहजा ऐसा था, कि लगा जवाब पता हो।
"पापा सब अच्छा चल रहा है, बढ़िया है ।" राज ने बिना रुके, बिना अटके, जवाब दिया।
वो नही बताना चाहता था कि वो किस दौर से गुजर रहा है, पता नही पापा इन सबको कैसे लेंगे ?, मुझे कैसे जज करेंगे?
पापा गहरी साँस छोड़ते हुए बोले "देखो राज, हमेशा ऐसा नहीं होता कि, हम काम को कर नही सकते, पर कई बार बहुत सी चीजें हमारे स्वभाव को नही समझ आती, तो इसमें गलत सही का प्रश्न नही होता, न ही इस बात का कि हम सफल हुए या विफल । क्योंकि सफलता विफलता के पैमाने अलग-अलग है । जीवन के विषय में स्वयं के निर्णय लिए जाते है, दूसरों की सहमति नहीं । तो ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है, नही समझ आ रहा, तो आ जाना मैं हूँ अभी। " और फिर कुछ देर वो चुप रहे, राज भी कुछ नहीं बोला
और कॉल कट गया ।
राज ये नहीं समझ पाया कि अचानक ये सब कैसे हुआ?
यहाँ भी कोई स्लीपर सेल था?
या मेरा घर पर मम्मी से जॉब के बारे मैं कभी-कभी बताना...
कारण कुछ भी रहा हो, पर राज इस कॉल के बाद बहुत हल्का महसूस कर रहा था। राज उठा लैपटॉप गोद में लिया और रेजिग्नेशन लेटर टाइप करने लगा, पता नहीं क्यों बहुत अच्छा लग रहा था।
ऐसा की जैसे कोई साथ खड़ा है, कंधे पे हाथ रखे और बोल रहा है "क्या यार इतनी छोटी बात के लिए परेशान हो रहा था। इतनी बड़ी ज़िंदगी है कुछ ना कुछ तू कर ही लेगा, मेरा विश्वास है। राज के चेहरे पर मुस्कान थी और आँख़े थी कि, लगातार बहे जा रही थी ।
ये सोच सोच के कि बाप, बाप ही होता है और जैसा भी हो, जब तक है तब तक सर पर एक साया है।
"ये थी, एक छोटी सी बात"
Copyright @ रोहित प्रधान
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