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"हमारी कोशिश है, आपकी कशिश बनी रहे"January 20 2021
काका-काकी
एक सर्द रविवार की सुबह करीब 11 बजे का समय था। रवि अपने पलंग पर पड़ा विविध भारती पर गाने चला कर,
मैगज़ीन हाथ मे लिए, पन्ने पलट रहा था।
तभी काका की आवाज कानो में पड़ी - "रवि, एक बार यहाँ आना, ये खटिया बिछवा दे, तेरी काकी मंगोड़ियाँ सुखायेगी ।"
जीने में खड़े काका कमर पर हाथ लगाए, नीचे देखकर आवाज दे रहे थे।
"हाँ काका आया" रवि ने जवाब दिया । और अपनी मैगज़ीन को साइड में रखकर बिना किसी झुंझलाहट के चल दिया छत की ओर।
सीढिया चढ़ते हुए रवि के कानों में काका-काकी की बाते पड़ी । काकी बोल रही थी "अरे क्यों परेशान कर रहे हो उसको , छोटा सा तो काम है , उसको भी एक ही तो छुट्टी मिलती है , और वो किरायेदार है , आपका बच्चा थोड़े न है , जो हर छोटे काम मे छोरे को आवाज लगा देते हो ।"
"अब इसमें क्या हो गया थोड़ा हाथ बटा देगा तो, वैसे भी वो पढ़ थोड़े न रहा है । आज वैसे भी इतवार है और कल ही तो परीक्षा खत्म हुई है ..."
"अरे भाग जाएगा ज्यादा काम बताओगे तो, वो रहने के पैसे देता है, काम क्यों कराना ।" काकी ने मँगोड़ियों के मसाले की परात को नीचे रखते हुए कहा।
तब तक रवि ऊपर आ चुका था , दोनों अचानक चुप हो गए और एक दूसरे से नजर हटा ली । काका ने रवि के आते ही खाट की ओर देखा और रवि उसकी तरफ बढ़ गया, काका पीछे-पीछे धीरे से बढ़े , रवि ने खाट उठायी तो काका धीमी अवाज में बेमन से बोले- "अरे, रुक-रुक मैं हाथ लगवा देता हूँ । "
लेकिन इतने में तो रवि खाट बिछा भी चुका था ।
काकी ने काका को थोड़ा गुस्से से देखा, (क्योकि काकी जानती थी कि हाथ लगाने वाली बात बस एक औपचारिकता मात्र थी) काकी का ग़ुस्सा देख काका मुस्कुरा दिए । साफ लग रहा था कि काका की कोई मंशा थी ही नही, कि वो खाट को हाथ भी लगाए ।
अब काकी ने कपड़ा डाला और मंगोड़िया डालने लगी । रवि ने बिना कुछ बोले काकी के मसाले के घोल में हाथ डाला और काकी जैसे कर रही थी वैसे करने लगा ।
काकी बोली "बेटा, तू क्यों हाथ गंदा कर रहा है , तू जा तेरा काम कर ले । ये तो क्या है पंडित ठहरे ,विद्वान आदमी है , तो काम तो करवा नही सकते दिन भर बस ज्ञान देते है या फिर ऑडर । "
रवि बोला " वैसे काकी कुछ भी बोलो, ये भी काका की एक कला ही है । " और काका की ओर रवि ने मुस्कुराकर देखा ।
काका तपाक से बोले "देख ले ये बच्चा भी समझता है । बस तेरे को ही कोई कद्र नही है ।" और अपनी कुर्सी पर अखबार लेकर गर्व से बैठ गए ।
तो ये कहानी है, एक पंडित और पंडिताइन की ।
पंडित जी करीब 75 वर्ष के होंगे और पंडिताईन 70 के करीब दोनों जयपुर में रहा करते थे । पंडित जी कर्म कांड करते थे, पंडिताइन भी ये सब जानती थी। सत्तर के दशक में मेट्रिक की थी दोनों ने । दोनों के बच्चे नही थे । एक अच्छे कॉलेज के पास घर था, तो किराये पर कोई भी रहने आ ही जाता था । अभी रवि को रहते दो साल हो गए थे । एक साल अभी बाकी था उसकी कॉलेज की पढ़ाई का।
मंगोड़ियाँ सुखाते हुए अचानक काकी पंडित जी (काका से) से बोली "एक बात बताओ पंडित जी, अगर आप मुझसे पहले चले गए तो मेरा क्या होगा ? "
काका ने कोई जवाब नही दिया , यहाँ तक कि अखबार भी नही हटाया, जैसे कुछ सुना ही नही हो।
काकी फिर बोली "इतने बूढ़े नही हुए हो कि सुनाई देना बंद हो गया है, इस अखबार को चार बार पढ़ चुके हो ।"
काका ने अखबार हटाया और जवाब दिया "अरे कितना काम तो है तेरे पास, सुबह से शाम तक, उठना, पूजा करना, घर का काम, तुझे तो पता नही क्या-क्या बनाना आता है और इतना धन छोड़े जा रहा हूँ, तेरे जीवन यापन के लिए, ये कोठी है , किरायेदार आ ही जाते है, हर 3 साल में एक नया रवि भी तो आ ही जाता है ।आस पास तेरी सहेलियों है, और वो बातूनी तारा, वो तो है ही, रोज तेरा खाना खाने आ जाती है पूरे मौहल्ले की बाते लेकर, तुझे क्या चिंता है? और कुछ भी नही तो, मंगोड़ियाँ तो है ही, बनाती रहना, सुखाती रहना।"
ऐसा सुनते ही काकी का हाथ रुक गया, पर रवि और काका बहुत तेज हँसे । उनकी हँसी रुकी ही नही और काकी दोनों को देख रही थी । बहुत देर हँसने के बाद काका चुप हो गए और रवि भी।
काका ने पूरे जीवन हर उस गंभीर बात को ऐसे ही एक हँसी का मोड़ देकर टाला था, जिसे वो अपने कर्मों से नहीं बदल सकते थे। बातों के तो राजा थे काका, दिन भर भैठे रहो, कुछ ना कुछ ज्ञान की बात या गूढ़ मजाक चलता रहता था।
एकदम शांति होने के बाद काकी और रवि दोनों काम करने लगे । चंद मिनटों बाद अखबार के पीछे से काका की आवाज आयी "लेकिन पंडिताइन ये बता, अगर तू पहले चली गयी तो मैं क्या करूँगा ?"
काकी ने मंगोड़ी डालना बंद कर दिया और बोली "आपके पास तो काम की कोई कमी ही नही है, अभी भी कौनसा फ्री हो, बात कर ही लेते हो । दिन भर या तो अपने चेलों में, या यजमानो में रहते हो ।वो तो आज इतवार है और बाहर कर्फ्यू लगा है , वरना आप घर मे टिक जाओ ऐसा कब होता है ? और आपके पास भी तो इतने काम रहते है, पता नही कितनी सारी समितियों में काम करते हो ।मुझे तो नाम भी याद नही रहते। आपका तो आसानी से जीवन कट ही जायेगा। और फिर भी कुछ नही हुआ तो, जो जीने में रद्दी पड़ी है अखबार की, एक अखबार को चार बार तो पढ़ते ही हो, एक बार और पढ़ लेना, क्या ही फर्क पड़ता है, वैसे अभी भी तो परसो का ही अखबार लेकर बैठे हो ।"
इस बार हँसने की बारी काकी और रवि की थी, इस बार तो रवि हँसते हँसते लुढक ही गया, छत के आँगन में । और काका अखबार पलट कर तारीख देख रहे थे। सच में अख़बार पुराना ही था। काफी देर तीनो हँसते रहे,
तब रवि बोला "अरे आप दोनों इतना क्यों चिंता करते हो मैं हूँ ना, आपका रवि, मैं संभाल लूँगा । मैं कहाँ जाऊँगा, यहीं रह जाऊँगा । आप लोगो के पास, आपका बेटा बनकर... " रवि की बात सुन काका काकी कुछ नही बोले । काकी ने काका को देखा और दोनों मुस्कुरा दिये।
कुछ वर्षों के बाद रवि की डिग्री खत्म हो गयी । दिल्ली में एक सरकारी शिक्षक बन गया था, अब वो । करीब एक वर्ष तक रवि का काका-काकी से कोई संपर्क नही रहा ।
एक दिन किसी काम से रवि का जयपुर आना हुआ । रवि ने सोचा काका-काकी से मिल लेना चाहिए, वैसे तो उसके मन मे संकोच था, क्योंकि पिछले एक साल में एक बार भी उसने काका-काकी को एक पत्र भी नही लिखा था।
बहुत सी बातों पर विचार करके अंत मे रवि मिलने चले ही गया। दिल्ली से तो कुछ लाया न था । तो वही से कुछ फल ले लिए थे।
रिक्शा लेकर जब रवि घर के बाहर पहुँचा, बहुत प्रसन्न था, पर साथ ही थोड़ा संकोच भी। जैसे ही उसने घर की कुंडी खड़काने की कोशिश की, तो कुंडी पर ताला लगा देखा और एक सरकारी नोटिस भी । रवि ने नोटिस को ध्यान से पढ़ा, जो जुर्माने का था और बिजली का बिल न जमा होने के कारण कनेक्शन काट दिए जाने की बाबत्।
रवि को कुछ समझ नही आया। उसे लगा इतने समय के लिए कहाँ चले गए दोनों, ऐसे तो कही नही जाते थे? उसने पास वाली राशन की दुकान से जाकर पूछना ही ठीक समझा - " और चाचा... "
दुकान वाले अंकल ने सर उठाया और देखा रवि खड़ा है, तो बहुत खुश हुए और बोले- "अरे मास्टर जी! ऐसी क्या नौकरी लगी कि इधर आना ही छोड़ दिया। काका-काकी से मिलने आये हो ? "
रवि उतावलेपन से बोला और फिर एक के बाद एक सवाल दाग दिए- "हाँ, चाचा थोड़ी व्यस्तता हो गयी थी, पर काका काकी कहाँ गए ? और ये नोटिस क्यों चस्पा किया है ? बिजली का बिल तो समय पर ही जमा करवाते है? और दोनों ही कहाँ गए ?"
रवि बहुत असहज और असहाय महसूस कर रहा था, वो सब प्रश्नों के उत्तर जानने को अधीर हो रहा था।
तब चाचा बोले "क्या बताए बेटा, तीर्थ यात्रा गए थे दोनों पंडित पंडिताइन, वही साथ बह गए ।ना किस से सेवा करवायी, ना किसी को इंतज़ार करवाया, सब अपने आप ही हो गया, ईश्वर की माया है लाला कौन जान सका है?"
रवि वही स्तब्ध सा खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला, रोड़ की आवाज़ आना बंद हो चुकी थी, कुछ देर आसमान की ओर देखा, फिर किराना वाले चाचा की ओर देख, मुस्कुराने लगा।
"क्या हुआ रवि? मुस्कुराये क्यों रहे हो? सब ठीक तो है ? क्या बात हुई बताओ ? "
रवि ने कुछ नही बोला, बस वापस काका-काकी के घर की चौखट पर किवाड़ के पास गया। नोटिस पर हाथ रखा और एक पंक्ति पढ़ी जो ठीक घर के किवाड़ के ऊपर लिखी थी।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
और अब रवि उस चौपाई को बार-बार पढ़ रहा था, जैसे कोई गूढ़ रहस्य ढूँढ रहा हो। मुस्कुरा रहा था और आँखों से लगातार अश्रु धारा बह रही थी और कानों में काका काकी ये वो शब्द गूंज रहे थे ।
"तुम चले गए तो मेरा क्या होगा ?"
...कोशिश है हमारी तुम्हारी कशिश बनी रहे...
Copyright @ रोहित प्रधान
तभी काका की आवाज कानो में पड़ी - "रवि, एक बार यहाँ आना, ये खटिया बिछवा दे, तेरी काकी मंगोड़ियाँ सुखायेगी ।"
जीने में खड़े काका कमर पर हाथ लगाए, नीचे देखकर आवाज दे रहे थे।
"हाँ काका आया" रवि ने जवाब दिया । और अपनी मैगज़ीन को साइड में रखकर बिना किसी झुंझलाहट के चल दिया छत की ओर।
सीढिया चढ़ते हुए रवि के कानों में काका-काकी की बाते पड़ी । काकी बोल रही थी "अरे क्यों परेशान कर रहे हो उसको , छोटा सा तो काम है , उसको भी एक ही तो छुट्टी मिलती है , और वो किरायेदार है , आपका बच्चा थोड़े न है , जो हर छोटे काम मे छोरे को आवाज लगा देते हो ।"
"अब इसमें क्या हो गया थोड़ा हाथ बटा देगा तो, वैसे भी वो पढ़ थोड़े न रहा है । आज वैसे भी इतवार है और कल ही तो परीक्षा खत्म हुई है ..."
"अरे भाग जाएगा ज्यादा काम बताओगे तो, वो रहने के पैसे देता है, काम क्यों कराना ।" काकी ने मँगोड़ियों के मसाले की परात को नीचे रखते हुए कहा।
तब तक रवि ऊपर आ चुका था , दोनों अचानक चुप हो गए और एक दूसरे से नजर हटा ली । काका ने रवि के आते ही खाट की ओर देखा और रवि उसकी तरफ बढ़ गया, काका पीछे-पीछे धीरे से बढ़े , रवि ने खाट उठायी तो काका धीमी अवाज में बेमन से बोले- "अरे, रुक-रुक मैं हाथ लगवा देता हूँ । "
लेकिन इतने में तो रवि खाट बिछा भी चुका था ।
काकी ने काका को थोड़ा गुस्से से देखा, (क्योकि काकी जानती थी कि हाथ लगाने वाली बात बस एक औपचारिकता मात्र थी) काकी का ग़ुस्सा देख काका मुस्कुरा दिए । साफ लग रहा था कि काका की कोई मंशा थी ही नही, कि वो खाट को हाथ भी लगाए ।
अब काकी ने कपड़ा डाला और मंगोड़िया डालने लगी । रवि ने बिना कुछ बोले काकी के मसाले के घोल में हाथ डाला और काकी जैसे कर रही थी वैसे करने लगा ।
काकी बोली "बेटा, तू क्यों हाथ गंदा कर रहा है , तू जा तेरा काम कर ले । ये तो क्या है पंडित ठहरे ,विद्वान आदमी है , तो काम तो करवा नही सकते दिन भर बस ज्ञान देते है या फिर ऑडर । "
रवि बोला " वैसे काकी कुछ भी बोलो, ये भी काका की एक कला ही है । " और काका की ओर रवि ने मुस्कुराकर देखा ।
काका तपाक से बोले "देख ले ये बच्चा भी समझता है । बस तेरे को ही कोई कद्र नही है ।" और अपनी कुर्सी पर अखबार लेकर गर्व से बैठ गए ।
तो ये कहानी है, एक पंडित और पंडिताइन की ।
पंडित जी करीब 75 वर्ष के होंगे और पंडिताईन 70 के करीब दोनों जयपुर में रहा करते थे । पंडित जी कर्म कांड करते थे, पंडिताइन भी ये सब जानती थी। सत्तर के दशक में मेट्रिक की थी दोनों ने । दोनों के बच्चे नही थे । एक अच्छे कॉलेज के पास घर था, तो किराये पर कोई भी रहने आ ही जाता था । अभी रवि को रहते दो साल हो गए थे । एक साल अभी बाकी था उसकी कॉलेज की पढ़ाई का।
मंगोड़ियाँ सुखाते हुए अचानक काकी पंडित जी (काका से) से बोली "एक बात बताओ पंडित जी, अगर आप मुझसे पहले चले गए तो मेरा क्या होगा ? "
काका ने कोई जवाब नही दिया , यहाँ तक कि अखबार भी नही हटाया, जैसे कुछ सुना ही नही हो।
काकी फिर बोली "इतने बूढ़े नही हुए हो कि सुनाई देना बंद हो गया है, इस अखबार को चार बार पढ़ चुके हो ।"
काका ने अखबार हटाया और जवाब दिया "अरे कितना काम तो है तेरे पास, सुबह से शाम तक, उठना, पूजा करना, घर का काम, तुझे तो पता नही क्या-क्या बनाना आता है और इतना धन छोड़े जा रहा हूँ, तेरे जीवन यापन के लिए, ये कोठी है , किरायेदार आ ही जाते है, हर 3 साल में एक नया रवि भी तो आ ही जाता है ।आस पास तेरी सहेलियों है, और वो बातूनी तारा, वो तो है ही, रोज तेरा खाना खाने आ जाती है पूरे मौहल्ले की बाते लेकर, तुझे क्या चिंता है? और कुछ भी नही तो, मंगोड़ियाँ तो है ही, बनाती रहना, सुखाती रहना।"
ऐसा सुनते ही काकी का हाथ रुक गया, पर रवि और काका बहुत तेज हँसे । उनकी हँसी रुकी ही नही और काकी दोनों को देख रही थी । बहुत देर हँसने के बाद काका चुप हो गए और रवि भी।
काका ने पूरे जीवन हर उस गंभीर बात को ऐसे ही एक हँसी का मोड़ देकर टाला था, जिसे वो अपने कर्मों से नहीं बदल सकते थे। बातों के तो राजा थे काका, दिन भर भैठे रहो, कुछ ना कुछ ज्ञान की बात या गूढ़ मजाक चलता रहता था।
एकदम शांति होने के बाद काकी और रवि दोनों काम करने लगे । चंद मिनटों बाद अखबार के पीछे से काका की आवाज आयी "लेकिन पंडिताइन ये बता, अगर तू पहले चली गयी तो मैं क्या करूँगा ?"
काकी ने मंगोड़ी डालना बंद कर दिया और बोली "आपके पास तो काम की कोई कमी ही नही है, अभी भी कौनसा फ्री हो, बात कर ही लेते हो । दिन भर या तो अपने चेलों में, या यजमानो में रहते हो ।वो तो आज इतवार है और बाहर कर्फ्यू लगा है , वरना आप घर मे टिक जाओ ऐसा कब होता है ? और आपके पास भी तो इतने काम रहते है, पता नही कितनी सारी समितियों में काम करते हो ।मुझे तो नाम भी याद नही रहते। आपका तो आसानी से जीवन कट ही जायेगा। और फिर भी कुछ नही हुआ तो, जो जीने में रद्दी पड़ी है अखबार की, एक अखबार को चार बार तो पढ़ते ही हो, एक बार और पढ़ लेना, क्या ही फर्क पड़ता है, वैसे अभी भी तो परसो का ही अखबार लेकर बैठे हो ।"
इस बार हँसने की बारी काकी और रवि की थी, इस बार तो रवि हँसते हँसते लुढक ही गया, छत के आँगन में । और काका अखबार पलट कर तारीख देख रहे थे। सच में अख़बार पुराना ही था। काफी देर तीनो हँसते रहे,
तब रवि बोला "अरे आप दोनों इतना क्यों चिंता करते हो मैं हूँ ना, आपका रवि, मैं संभाल लूँगा । मैं कहाँ जाऊँगा, यहीं रह जाऊँगा । आप लोगो के पास, आपका बेटा बनकर... " रवि की बात सुन काका काकी कुछ नही बोले । काकी ने काका को देखा और दोनों मुस्कुरा दिये।
कुछ वर्षों के बाद रवि की डिग्री खत्म हो गयी । दिल्ली में एक सरकारी शिक्षक बन गया था, अब वो । करीब एक वर्ष तक रवि का काका-काकी से कोई संपर्क नही रहा ।
एक दिन किसी काम से रवि का जयपुर आना हुआ । रवि ने सोचा काका-काकी से मिल लेना चाहिए, वैसे तो उसके मन मे संकोच था, क्योंकि पिछले एक साल में एक बार भी उसने काका-काकी को एक पत्र भी नही लिखा था।
बहुत सी बातों पर विचार करके अंत मे रवि मिलने चले ही गया। दिल्ली से तो कुछ लाया न था । तो वही से कुछ फल ले लिए थे।
रिक्शा लेकर जब रवि घर के बाहर पहुँचा, बहुत प्रसन्न था, पर साथ ही थोड़ा संकोच भी। जैसे ही उसने घर की कुंडी खड़काने की कोशिश की, तो कुंडी पर ताला लगा देखा और एक सरकारी नोटिस भी । रवि ने नोटिस को ध्यान से पढ़ा, जो जुर्माने का था और बिजली का बिल न जमा होने के कारण कनेक्शन काट दिए जाने की बाबत्।
रवि को कुछ समझ नही आया। उसे लगा इतने समय के लिए कहाँ चले गए दोनों, ऐसे तो कही नही जाते थे? उसने पास वाली राशन की दुकान से जाकर पूछना ही ठीक समझा - " और चाचा... "
दुकान वाले अंकल ने सर उठाया और देखा रवि खड़ा है, तो बहुत खुश हुए और बोले- "अरे मास्टर जी! ऐसी क्या नौकरी लगी कि इधर आना ही छोड़ दिया। काका-काकी से मिलने आये हो ? "
रवि उतावलेपन से बोला और फिर एक के बाद एक सवाल दाग दिए- "हाँ, चाचा थोड़ी व्यस्तता हो गयी थी, पर काका काकी कहाँ गए ? और ये नोटिस क्यों चस्पा किया है ? बिजली का बिल तो समय पर ही जमा करवाते है? और दोनों ही कहाँ गए ?"
रवि बहुत असहज और असहाय महसूस कर रहा था, वो सब प्रश्नों के उत्तर जानने को अधीर हो रहा था।
तब चाचा बोले "क्या बताए बेटा, तीर्थ यात्रा गए थे दोनों पंडित पंडिताइन, वही साथ बह गए ।ना किस से सेवा करवायी, ना किसी को इंतज़ार करवाया, सब अपने आप ही हो गया, ईश्वर की माया है लाला कौन जान सका है?"
रवि वही स्तब्ध सा खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला, रोड़ की आवाज़ आना बंद हो चुकी थी, कुछ देर आसमान की ओर देखा, फिर किराना वाले चाचा की ओर देख, मुस्कुराने लगा।
"क्या हुआ रवि? मुस्कुराये क्यों रहे हो? सब ठीक तो है ? क्या बात हुई बताओ ? "
रवि ने कुछ नही बोला, बस वापस काका-काकी के घर की चौखट पर किवाड़ के पास गया। नोटिस पर हाथ रखा और एक पंक्ति पढ़ी जो ठीक घर के किवाड़ के ऊपर लिखी थी।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
और अब रवि उस चौपाई को बार-बार पढ़ रहा था, जैसे कोई गूढ़ रहस्य ढूँढ रहा हो। मुस्कुरा रहा था और आँखों से लगातार अश्रु धारा बह रही थी और कानों में काका काकी ये वो शब्द गूंज रहे थे ।
"तुम चले गए तो मेरा क्या होगा ?"
...कोशिश है हमारी तुम्हारी कशिश बनी रहे...
Copyright @ रोहित प्रधान
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Unknown on October 25,2023True
testing on November 26,2023testing
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