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"हमारी कोशिश है, आपकी कशिश बनी रहे"July 11 2023
परिधि या परी
उस दिन सुबह से ही अजीब सा लग रहा था, मन किसी काम में ना लगता था ।
घबराहट सी हो रही थी, बहुत बैचैनी थी । जबकि दिन में तो ऐसा नया कुछ
नहीं था, मैं छुट्टियाँ बिताने मामा के यहाँ आईं हुई थी। रोज़ इतनी
मस्ती करते थे, इतनी शैतानियाँ, कि सबके नाक में दम किया हुआ था । पर
वो दिन सुबह से ही अजीब था, दिनचर्या तो वही थी, मस्ती भी वही थी, बस
मेरा मन ना जाने क्यों, नहीं लग रहा था। दोपहर के क़रीब दो बजे मैं
टॉयलेट गई, तो कुछ ज़्यादा गीलापन था, सामान्यतया ऐसा होता नहीं था ।
और जैसे ही मैं फ्लश करने को उठी, मेरी आँखों पर मुझे विश्वास ना
हुआ, पूरा पॉट लाल था । एकदम समझ नहीं पायी, सर घूम रहा था, फिर मुझे
लगा शायद किसी और के साथ कुछ हुआ हो, क्योंकि मुझे ना कोई दर्द हो
रहा है, ना सुबह से कही कोई चोट लगी, मैं अपने को समझा ही रही थी, कि
अचानक मेरी नज़र मेरे पजामे पर पड़ी । मुझे जैसे कोई झटका लगा हो,
पूरा लाल हो गया था वो । अब आँखे बहना शुरू हो गई । पता नहीं कब तक
मैं, ऐसे ही बाथरूम में बेसुध सी रोती जा रही थी और समझने का प्रयास
कर रही थी। बस माँ दिखाई दे रही थी, बाहर आने की हिम्मत नहीं हो पा
रही थी ।बाथरूम में ना मेरे पास दूसरे कपड़े थे, ना समझ पा रही थी,
कि हुआ क्या ये ? आज तो मुझे याद भी नहीं, कि कब तक वो कश्मकश चली।
बस इतना याद है, कि बाहर से आने वाली बिट्टू की आवाज़ ने मुझे अपनी
बेसुधी से वापस बुलाया, बिट्टू बाहर से चिल्ला रहा था -
“पिंकी ! तेरी बारी आ गई जल्दी आ, नहीं तो वो जीत जाएँगे ।तू लाल रंग ही लेना ।”
बिट्टू को क्या पता था? आज पिंकी कौनसा खेल, खेल रही थी बाथरूम में, लाल ही तो था यहाँ सब, अब और लाल देखने की हिम्मत नहीं थी । जैसे-तैसे मैं कुर्ते से मैनेज करके बाहर तो निकली, पर रोना ना रोक पायी, बस माँ के अलावा कुछ ना दीखता था । बिट्टू ने देखा मैं रोती हुई कमरे की तरफ़ गई हूँ, वो पीछे-पीछे साथ आ गया “क्या हुआ पिंकी, तू क्यों रो रही है” वो बार-बार पूछने लगा मैं बस रोती रही, बिट्टू के प्रश्न लगातार चल रहे थे “बता ना पिंकी, क्या हुआ ? तू रो क्यों रही है ? पेट दुख रहा है ? किसी ने कुछ बोला ? मम्मी ने कुछ बोला ? भैया ने डाँटा ? छोटू ने कुछ बोला ? “ मैं उसके प्रश्नों पर बस रोये जा रही थी और “ना” में बस गर्दन हिला रही थी। वो सब संभावनाएँ प्रश्नों में डाल चुका था।पर मैं बस रोये जा रही थी ।बिट्टू की सभी सम्भावनाओं की प्रश्नावली भी अब ख़त्म हो चुकी थी। तब तक बच्चों की फ़ौज इकट्ठी हो चुकी थी, सब मुझे रोता देख रहे थे और अपने अपने तरीक़े से संभावनाओं के प्रश्न गढ़ रहे थे।लेकिन कोई भी सही प्रश्न तक नहीं पहुँच पा रहा था ।
बिट्टू दौड़ का अपनी माँ (मामी) को बुला लाया, लेकिन वो भी विफल रही ।मामी ने अपनी बड़ी बेटी सत्तू दीदी को आवाज़ लगायी, सत्तू दीदी मेरे क़रीब थी, मेरे से सत्तू दीदी की बहुत पटती थी। बिट्टू तो सत्तू दीदी को लेने, पास के घर की ओर दौड़ ही पड़ा और सारे रास्ते उनको अपनी पूरी प्रश्नावली सुनाते हुए अंत में रोता हुआ बोला “दीदी, पिंकी मुझसे भी बात नहीं कर रही, मैं तो उसकी टीम में हूँ ना, मैंने क्या किया? मुझे भी नहीं बताती, बस रोती ही रोती है। बताओ ना दीदी, क्या हुआ?” आठ साल का बिट्टू अपने भोलेपन के आँसू पोंछता हुआ सत्तू दीदी को लेकर पहुँचा ।
दीदी ने आते ही मुझे गले लगा लिया और मेरा रोना और तेज हो गया । दीदी ने कुछ देर तक, कुछ नहीं पूछा, फिर अपनी अंगुली मेरी ठोड़ी पर लगा, मेरा सर धीरे से ऊपर करके बोली “ क्या हुआ पिंकी घर की याद आ रही है?” मैंने “हाँ” में सर हिलाया, फिर साथ ही “ना” में सर हिला दिया सत्तू दीदी बिट्टू की सारी प्रश्नावली नहीं दोहराना चाहती थी, तो उन्होंने बस अब एक ही प्रश्न किया “कपड़े ख़राब हो गये क्या ?” मैं “हाँ” में सर हिला के बहुत तेज रोयी, तभी सत्तू दीदी मुस्कुरा दी।
बिट्टू अपने छोटे-छोटे हाथों से मेरे (पिंकी के) आँसू पोछते हुए बोला “पागल है क्या तू पिंकी, मेरे तो फट जाते है, तो भी नहीं रोता मैं, तेरे तो ख़राब ही हुए है, तो इतना रोने लग गई ।चुप हो जा” सब हँसने लगे ।आठ साल का बच्चा क्या जाने वो कौनसे दाग है ? बिट्टू को आज भी नहीं पता होगा, शायद कभी कभी कपड़े ख़राब होना, फटने से ज़्यादा दर्द देते है। क्योंकि जब दाग नहीं जाते तो, बीते पल रह-रह के याद आते है ।
सत्तू दीदी ने सबको भगा दिया, बिट्टु को भी, फिर मुझसे बोली- “अरे, रो क्यों रही है, चल चुप हो जा, कुछ नहीं हुआ है, तू बड़ी हुई है, सबके ऐसे ही होता है, मुझे भी होता है, मामी को भी, बुआ (पिंकी की मम्मी) को भी होता है।” मैं तपाक से बोली “क्या मेरी मम्मी को भी ? “ सत्तू दीदी हँस कर बोली “ हाँ सबको, तेरी मम्मी को भी। हर महीने होता है, ध्यान है ना तुझे, जब कुछ दिन मम्मी रसोई में नहीं जाती। तो तू रोटी बनाती है, या फिर फ़ूफ़ा जी। बस हर महीने वही दिन होते है। तो तू चिंता मत कर, कोई दिक़्क़त नहीं है, बस तेरे कपड़े ख़राब ना हो, उसका रास्ता बता देती हूँ, और ये कपड़े धो देती हूँ । मैं कॉलेज जा रही हूँ, तू डरना नहीं सब सामान्य है, कोई बात हो तो, मम्मी को बता देना ।” तभी सत्तू दीदी की मम्मी और पिंकी की मामी अंदर आ गई। वो अब सब समझ चुकी थी ।
अब मैं भी चुप हो चुकी थी, पर शांत नहीं हुई थी, बहुत कुछ चल रहा था।मम्मी की याद आ रही थी। पर तब फ़ोन नहीं होते थे। पत्र लिखे जाते थे। थोड़ी देर बाद सत्तू दीदी कॉलेज के लिए निकल गई और मैं सो गई। मैं कुछ देर बाद जब उठकर पानी पीकर बाहर आयी, तो मामी चद्दर लिए रसोई के बाहर खड़ी थी बोली “पिंकी दीदी ! ये चद्दर धो दो और आज नीचे सोना, रसोई से और पूजा घर से तो दूर ही रहना ।”
मुझे ये कुछ समझ नहीं आया। पर मैंने चद्दर धो दी। कुछ देर बाद जब ऊपर गई तो मेरे कपड़े सीढ़ियों में पड़े थे, पूरी तरह सूखे भी ना होंगे, हल्की हल्की नमी थी उनमें। शायद सबके कपड़ों से साथ सूखा दिये थे मैंने।
आज मामी का बर्ताव एकदम बदल गया था। पर सत्तू दीदी ने तो बोला था, सबके साथ होता है, लेकिन मामी तो ऐसा व्यवहार कर रही थी, जैसे मैं कोई सौतेली बेटी हूँ ।मुझे यह व्यवहार नहीं समझ आया। शाम तक मुझे मम्मी की बहुत याद आने लगी। वैसे तो मन ना होता था, छुट्टियों में मामा के यहाँ से घर जाने का, पर इस बार की छुट्टियाँ आज ही के दिन से ख़त्म सी लगी।
मैंने जाकर मामा को बोल दिया “मामा मुझे घर जाना है, आप अभी छोड़ आओ ।"
मामा बोले “क्या हुआ बेटा, हर बार तो पापा लेने आते है, तो भी नहीं जाती, इस बार क्या हुआ मेरी पारो को, किसी ने कुछ कहा क्या? मामा की पारो नहीं है क्या तू ? फिर तू चली जाएगी तो मामा का मन कैसे लगेगा?”
“हूँ ना मामा, पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा। आप मुझे छोड़ आओ बस “ मामा ने इस बार, रोकने के लिए ज़ोर नहीं दिया। क्योंकि वो जानते थे। जो मुझ तेरह साल की बच्ची पर बीत रही है, वो समझ तो पा रहे है, पर महसूस कभी नहीं कर पायेंगे, तो बोले “ठीक है पारो बेटा!, कल देखते है... “ फिर उस रात मैंने मामा को मामी से कहते हुए सुना “नीचे कैसे सोयेगी वो? सब बच्चे वही सो रहे है? उससे पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वो? पागल हो गई है क्या तू? क्या बकवास है ये? उसको नहीं पता ये सब, पहला दिन है उसका, कुछ तो समझ। समय लगता है, समझाया भी जा सकता है, व्यवहार में ऐसा परिवर्तन क्यों ? ”
मामी बोली “देखो, आप बीच में मत पड़ो, हम महिलाओं के मामलों में क्या करना है और क्या नहीं ? अपना किताबी ज्ञान मुझे मत बताओ, मैं सब जानती हूँ, जो होता आया है, वही कर रही हूँ। क्या सत्तू ये सब नहीं करती, क्या हमने नहीं किया? क्या नया लगा आपको इसमें ? जो इतना बिगड़ रहे हो।” मामी की आवाज़ में भी एक दर्द सा था, पर क्या जाने ? क्या याद आ रहा था उनको ? जो मजबूर कर रहा था, ये सब करने को?
मामा बोले “कोई ज़रूरत नहीं है ये सब करने की, पाँच दिन में घर की याद आ रही है उसको, पाँच महीने बाद भी छोड़ने जाता था, तो ज़बरदस्ती जाना पड़ता था, थोड़ा माँ की तरह समझा दे...“
मामा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मामी बोली “देखो जी, किसी और की वजह से मेरे घर में क्लेश मत करो... “
“कोई और कौन? कोई और, ये बच्ची ?...” मामा ने पूछा। तभी नाना अंदर आ गये और एकदम सब सन्नाटा सा छा गया।
उस रात मैं नीचे सोयी और सत्तू दीदी मेरे पास, मुझसे लिपट कर, पास ही बिट्टू भी आ गया सोने, उसे साथ ही सोना था, उसे आज पलंग की लड़ाई नहीं करनी थी। उसे ये सब नहीं समझता था, उसके लिये जहां सब, वहाँ वो।
आज पलंग ख़ाली था कोई नहीं सोया उस पर उस दिन। हाँ, पर अगर कोई उस दिन, हाथ पाँव पसारे मुस्कुराता हुआ सोया तो, वो था हमारा अधूरे ज्ञान वाला "हमारा प्यारा समाज"।
जिससे हम सब बच्चे हमेशा दूर रहे, इसको समझना किसी को नहीं आया। समाज हमेशा ऊपर सोया, हम हमेशा नीचे, और हमेशा हमारे दिमाग़ में डाला गया कि एक दिन इसके बराबर सोना है तुमको, और आज भी दौड़ रहे है, ऊपर सोने के लिये उस समाज के बराबर, अच्छा होता उस पलंग के पाये ही काट दिये होते ।तो सब साथ ही होते।हम भी, और समाज भी । तभी सत्तू दीदी कुछ बड़बड़ाई -
"अज्ञानेनावृतं ज्ञानं" (अज्ञान से ज्ञान आच्छादित (ढका) है।)
मैंने पूछा "क्या बोले दीदी" दीदी बोली "कुछ नहीं पिंकी, सो जा बेटा, नींद नहीं आ रही क्या ?" मैं बोली "वो तो आपको भी नहीं आ रही ना?"
तभी बिट्टू लेटा हुआ छत की ओर देखकर बोला “सत्तू दीदी, जब नीचे इतनी अच्छी नींद आती है, गिरने का भी डर नहीं होता, पूरा फैल के सोओ, तो फिर हम ये पलंग बनवाते ही क्यों है ? हमेशा डर ही लगा रहता है गिरने का, यहाँ देखो ज़मीन पर, ना गिरने का डर है, ना सरकने का, मस्त पसर के सोओ ।”
सत्तू दीदी हँसते हुए बोली “ बेटा थोड़ा बड़ा हो जा, तू ही लड़ेगा पलंग पर सोने को, मेरे से नहीं सबसे।एक दौड़ है ये।” उस दिन ना बिट्टु समझा ना मैं समझी कि दीदी क्या समझाना चाहती है, बस दोनो एक साथ बोले “ मैं तो ना लड़ूँ “ । पर उस रात ना दीदी सोयी, ना मैं।
आज इतने सालों बाद, अपनी बेटी को ये कहानी सुनाते सुनाते पिंकी की आँखे भर गयी, जैसे की आज भी उस दिन से डरती हो। पिंकी की बेटी परिधि अब बड़ी हो गयी थी, शायद ये कहानी उसके काम आए। परिधि (पिंकी के बेटी) भी छलकती आँखों से, अपनी माँ पिंकी की आँखे पोछते हुए बोली - “माँ ! तभी आप मुझे "परी" बुलाते हो और बाक़ी सब परिधि “ “ हाँ बेटा परी, मैं तुझे समाज़ की परिधियाँ नहीं देना चाहती, बस तुझे जीवन मूल्यों के पंख दे, तुझे परी की तरह उड़ता देखना चाहती हूँ। परिधि सीमाएँ है और परी स्वतंत्रता...”
उसके बाद चतुर्दशी के बचे खुचे चाँद को देख, फिर दोनो कहीं खो गए। शायद पिंकी अतीत में और परिधि भविष्य में।
"हमारी कोशिश है आपकी कशिश बनी रहे ..."
Copyright रोहित प्रधान
“पिंकी ! तेरी बारी आ गई जल्दी आ, नहीं तो वो जीत जाएँगे ।तू लाल रंग ही लेना ।”
बिट्टू को क्या पता था? आज पिंकी कौनसा खेल, खेल रही थी बाथरूम में, लाल ही तो था यहाँ सब, अब और लाल देखने की हिम्मत नहीं थी । जैसे-तैसे मैं कुर्ते से मैनेज करके बाहर तो निकली, पर रोना ना रोक पायी, बस माँ के अलावा कुछ ना दीखता था । बिट्टू ने देखा मैं रोती हुई कमरे की तरफ़ गई हूँ, वो पीछे-पीछे साथ आ गया “क्या हुआ पिंकी, तू क्यों रो रही है” वो बार-बार पूछने लगा मैं बस रोती रही, बिट्टू के प्रश्न लगातार चल रहे थे “बता ना पिंकी, क्या हुआ ? तू रो क्यों रही है ? पेट दुख रहा है ? किसी ने कुछ बोला ? मम्मी ने कुछ बोला ? भैया ने डाँटा ? छोटू ने कुछ बोला ? “ मैं उसके प्रश्नों पर बस रोये जा रही थी और “ना” में बस गर्दन हिला रही थी। वो सब संभावनाएँ प्रश्नों में डाल चुका था।पर मैं बस रोये जा रही थी ।बिट्टू की सभी सम्भावनाओं की प्रश्नावली भी अब ख़त्म हो चुकी थी। तब तक बच्चों की फ़ौज इकट्ठी हो चुकी थी, सब मुझे रोता देख रहे थे और अपने अपने तरीक़े से संभावनाओं के प्रश्न गढ़ रहे थे।लेकिन कोई भी सही प्रश्न तक नहीं पहुँच पा रहा था ।
बिट्टू दौड़ का अपनी माँ (मामी) को बुला लाया, लेकिन वो भी विफल रही ।मामी ने अपनी बड़ी बेटी सत्तू दीदी को आवाज़ लगायी, सत्तू दीदी मेरे क़रीब थी, मेरे से सत्तू दीदी की बहुत पटती थी। बिट्टू तो सत्तू दीदी को लेने, पास के घर की ओर दौड़ ही पड़ा और सारे रास्ते उनको अपनी पूरी प्रश्नावली सुनाते हुए अंत में रोता हुआ बोला “दीदी, पिंकी मुझसे भी बात नहीं कर रही, मैं तो उसकी टीम में हूँ ना, मैंने क्या किया? मुझे भी नहीं बताती, बस रोती ही रोती है। बताओ ना दीदी, क्या हुआ?” आठ साल का बिट्टू अपने भोलेपन के आँसू पोंछता हुआ सत्तू दीदी को लेकर पहुँचा ।
दीदी ने आते ही मुझे गले लगा लिया और मेरा रोना और तेज हो गया । दीदी ने कुछ देर तक, कुछ नहीं पूछा, फिर अपनी अंगुली मेरी ठोड़ी पर लगा, मेरा सर धीरे से ऊपर करके बोली “ क्या हुआ पिंकी घर की याद आ रही है?” मैंने “हाँ” में सर हिलाया, फिर साथ ही “ना” में सर हिला दिया सत्तू दीदी बिट्टू की सारी प्रश्नावली नहीं दोहराना चाहती थी, तो उन्होंने बस अब एक ही प्रश्न किया “कपड़े ख़राब हो गये क्या ?” मैं “हाँ” में सर हिला के बहुत तेज रोयी, तभी सत्तू दीदी मुस्कुरा दी।
बिट्टू अपने छोटे-छोटे हाथों से मेरे (पिंकी के) आँसू पोछते हुए बोला “पागल है क्या तू पिंकी, मेरे तो फट जाते है, तो भी नहीं रोता मैं, तेरे तो ख़राब ही हुए है, तो इतना रोने लग गई ।चुप हो जा” सब हँसने लगे ।आठ साल का बच्चा क्या जाने वो कौनसे दाग है ? बिट्टू को आज भी नहीं पता होगा, शायद कभी कभी कपड़े ख़राब होना, फटने से ज़्यादा दर्द देते है। क्योंकि जब दाग नहीं जाते तो, बीते पल रह-रह के याद आते है ।
सत्तू दीदी ने सबको भगा दिया, बिट्टु को भी, फिर मुझसे बोली- “अरे, रो क्यों रही है, चल चुप हो जा, कुछ नहीं हुआ है, तू बड़ी हुई है, सबके ऐसे ही होता है, मुझे भी होता है, मामी को भी, बुआ (पिंकी की मम्मी) को भी होता है।” मैं तपाक से बोली “क्या मेरी मम्मी को भी ? “ सत्तू दीदी हँस कर बोली “ हाँ सबको, तेरी मम्मी को भी। हर महीने होता है, ध्यान है ना तुझे, जब कुछ दिन मम्मी रसोई में नहीं जाती। तो तू रोटी बनाती है, या फिर फ़ूफ़ा जी। बस हर महीने वही दिन होते है। तो तू चिंता मत कर, कोई दिक़्क़त नहीं है, बस तेरे कपड़े ख़राब ना हो, उसका रास्ता बता देती हूँ, और ये कपड़े धो देती हूँ । मैं कॉलेज जा रही हूँ, तू डरना नहीं सब सामान्य है, कोई बात हो तो, मम्मी को बता देना ।” तभी सत्तू दीदी की मम्मी और पिंकी की मामी अंदर आ गई। वो अब सब समझ चुकी थी ।
अब मैं भी चुप हो चुकी थी, पर शांत नहीं हुई थी, बहुत कुछ चल रहा था।मम्मी की याद आ रही थी। पर तब फ़ोन नहीं होते थे। पत्र लिखे जाते थे। थोड़ी देर बाद सत्तू दीदी कॉलेज के लिए निकल गई और मैं सो गई। मैं कुछ देर बाद जब उठकर पानी पीकर बाहर आयी, तो मामी चद्दर लिए रसोई के बाहर खड़ी थी बोली “पिंकी दीदी ! ये चद्दर धो दो और आज नीचे सोना, रसोई से और पूजा घर से तो दूर ही रहना ।”
मुझे ये कुछ समझ नहीं आया। पर मैंने चद्दर धो दी। कुछ देर बाद जब ऊपर गई तो मेरे कपड़े सीढ़ियों में पड़े थे, पूरी तरह सूखे भी ना होंगे, हल्की हल्की नमी थी उनमें। शायद सबके कपड़ों से साथ सूखा दिये थे मैंने।
आज मामी का बर्ताव एकदम बदल गया था। पर सत्तू दीदी ने तो बोला था, सबके साथ होता है, लेकिन मामी तो ऐसा व्यवहार कर रही थी, जैसे मैं कोई सौतेली बेटी हूँ ।मुझे यह व्यवहार नहीं समझ आया। शाम तक मुझे मम्मी की बहुत याद आने लगी। वैसे तो मन ना होता था, छुट्टियों में मामा के यहाँ से घर जाने का, पर इस बार की छुट्टियाँ आज ही के दिन से ख़त्म सी लगी।
मैंने जाकर मामा को बोल दिया “मामा मुझे घर जाना है, आप अभी छोड़ आओ ।"
मामा बोले “क्या हुआ बेटा, हर बार तो पापा लेने आते है, तो भी नहीं जाती, इस बार क्या हुआ मेरी पारो को, किसी ने कुछ कहा क्या? मामा की पारो नहीं है क्या तू ? फिर तू चली जाएगी तो मामा का मन कैसे लगेगा?”
“हूँ ना मामा, पर कुछ अच्छा नहीं लग रहा। आप मुझे छोड़ आओ बस “ मामा ने इस बार, रोकने के लिए ज़ोर नहीं दिया। क्योंकि वो जानते थे। जो मुझ तेरह साल की बच्ची पर बीत रही है, वो समझ तो पा रहे है, पर महसूस कभी नहीं कर पायेंगे, तो बोले “ठीक है पारो बेटा!, कल देखते है... “ फिर उस रात मैंने मामा को मामी से कहते हुए सुना “नीचे कैसे सोयेगी वो? सब बच्चे वही सो रहे है? उससे पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वो? पागल हो गई है क्या तू? क्या बकवास है ये? उसको नहीं पता ये सब, पहला दिन है उसका, कुछ तो समझ। समय लगता है, समझाया भी जा सकता है, व्यवहार में ऐसा परिवर्तन क्यों ? ”
मामी बोली “देखो, आप बीच में मत पड़ो, हम महिलाओं के मामलों में क्या करना है और क्या नहीं ? अपना किताबी ज्ञान मुझे मत बताओ, मैं सब जानती हूँ, जो होता आया है, वही कर रही हूँ। क्या सत्तू ये सब नहीं करती, क्या हमने नहीं किया? क्या नया लगा आपको इसमें ? जो इतना बिगड़ रहे हो।” मामी की आवाज़ में भी एक दर्द सा था, पर क्या जाने ? क्या याद आ रहा था उनको ? जो मजबूर कर रहा था, ये सब करने को?
मामा बोले “कोई ज़रूरत नहीं है ये सब करने की, पाँच दिन में घर की याद आ रही है उसको, पाँच महीने बाद भी छोड़ने जाता था, तो ज़बरदस्ती जाना पड़ता था, थोड़ा माँ की तरह समझा दे...“
मामा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मामी बोली “देखो जी, किसी और की वजह से मेरे घर में क्लेश मत करो... “
“कोई और कौन? कोई और, ये बच्ची ?...” मामा ने पूछा। तभी नाना अंदर आ गये और एकदम सब सन्नाटा सा छा गया।
उस रात मैं नीचे सोयी और सत्तू दीदी मेरे पास, मुझसे लिपट कर, पास ही बिट्टू भी आ गया सोने, उसे साथ ही सोना था, उसे आज पलंग की लड़ाई नहीं करनी थी। उसे ये सब नहीं समझता था, उसके लिये जहां सब, वहाँ वो।
आज पलंग ख़ाली था कोई नहीं सोया उस पर उस दिन। हाँ, पर अगर कोई उस दिन, हाथ पाँव पसारे मुस्कुराता हुआ सोया तो, वो था हमारा अधूरे ज्ञान वाला "हमारा प्यारा समाज"।
जिससे हम सब बच्चे हमेशा दूर रहे, इसको समझना किसी को नहीं आया। समाज हमेशा ऊपर सोया, हम हमेशा नीचे, और हमेशा हमारे दिमाग़ में डाला गया कि एक दिन इसके बराबर सोना है तुमको, और आज भी दौड़ रहे है, ऊपर सोने के लिये उस समाज के बराबर, अच्छा होता उस पलंग के पाये ही काट दिये होते ।तो सब साथ ही होते।हम भी, और समाज भी । तभी सत्तू दीदी कुछ बड़बड़ाई -
"अज्ञानेनावृतं ज्ञानं" (अज्ञान से ज्ञान आच्छादित (ढका) है।)
मैंने पूछा "क्या बोले दीदी" दीदी बोली "कुछ नहीं पिंकी, सो जा बेटा, नींद नहीं आ रही क्या ?" मैं बोली "वो तो आपको भी नहीं आ रही ना?"
तभी बिट्टू लेटा हुआ छत की ओर देखकर बोला “सत्तू दीदी, जब नीचे इतनी अच्छी नींद आती है, गिरने का भी डर नहीं होता, पूरा फैल के सोओ, तो फिर हम ये पलंग बनवाते ही क्यों है ? हमेशा डर ही लगा रहता है गिरने का, यहाँ देखो ज़मीन पर, ना गिरने का डर है, ना सरकने का, मस्त पसर के सोओ ।”
सत्तू दीदी हँसते हुए बोली “ बेटा थोड़ा बड़ा हो जा, तू ही लड़ेगा पलंग पर सोने को, मेरे से नहीं सबसे।एक दौड़ है ये।” उस दिन ना बिट्टु समझा ना मैं समझी कि दीदी क्या समझाना चाहती है, बस दोनो एक साथ बोले “ मैं तो ना लड़ूँ “ । पर उस रात ना दीदी सोयी, ना मैं।
आज इतने सालों बाद, अपनी बेटी को ये कहानी सुनाते सुनाते पिंकी की आँखे भर गयी, जैसे की आज भी उस दिन से डरती हो। पिंकी की बेटी परिधि अब बड़ी हो गयी थी, शायद ये कहानी उसके काम आए। परिधि (पिंकी के बेटी) भी छलकती आँखों से, अपनी माँ पिंकी की आँखे पोछते हुए बोली - “माँ ! तभी आप मुझे "परी" बुलाते हो और बाक़ी सब परिधि “ “ हाँ बेटा परी, मैं तुझे समाज़ की परिधियाँ नहीं देना चाहती, बस तुझे जीवन मूल्यों के पंख दे, तुझे परी की तरह उड़ता देखना चाहती हूँ। परिधि सीमाएँ है और परी स्वतंत्रता...”
उसके बाद चतुर्दशी के बचे खुचे चाँद को देख, फिर दोनो कहीं खो गए। शायद पिंकी अतीत में और परिधि भविष्य में।
"हमारी कोशिश है आपकी कशिश बनी रहे ..."
Copyright रोहित प्रधान
Comments
harshil on October 07,2023nice story
Anonymous on October 07,2023Very Nice
Prathamesh Pandya on October 18,2023Nice Story
Unknown on October 25,2023Very well written
someone on November 26,2023checking comment
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