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"हमारी कोशिश है, आपकी कशिश बनी रहे"May 29 2022
पुराना नाता
सन 1952 ट्रेन धड़ा धड़ पुल से गुज़र रही थी,
नीचे यमुना मद्दम - मद्दम बह रही थी और घुमाव पर डिब्बे की खिड़की से घूमती हुई ट्रेन के इंजन से
निकलते हुए धुएँ को रवि, बड़ी रोचकता से देख रहा था। उसकी 17 वर्ष की आयु में ये उसकी पहली रेल
यात्रा थी।
रोचकता चरम पर थी, कि माँ के बार-बार मना करने पर भी लगातार बाहर देखे जा रहा था।
दिल्ली से ईंटा लौटते हुए, बीच में मथुरा आता था, जहां एक रात रुकना था।
समय से रेल मथुरा पहुँची, जहाँ रवि अपनी माँ, बहन, अपनी गर्भवती भाभी और नौकर बन्ने के साथ उतरा ।
सब लोग दिल्ली से एक धार्मिक कार्यक्रम में जाकर आ रहे थे। क्योंकि अगली ट्रेन सुबह की थी, तो सबने
शाम 4 बजे मथुरा की एक धर्मशाला में अपना डेरा डाल लिया।
रवि अपनी भाभी के बहुत क़रीब था, क्योंकि पापा और ताऊ के चले जाने के बाद, रवि के बड़े भैया ने ही सब सम्भाल रखा था। 20 रुपए की नौकरी से शुरू हुए भैया, ने अपने खुद के काम तक का सफ़र, बहुत मेहनत और विपरीत परिस्थितियों में किया था। जब भैया की शादी हुई, तब रवि मात्र 5 वर्ष का था। भाभी ने माँ से भी बढ़कर स्नेह दिया था, रवि के लिए वो एक मित्र भी थी और माँ समान भाभी भी ।
मथुरा में एक ओर मौक़ा था मस्ती का, तो रवि और बन्ने ने मूवी का प्लान बनाया। उनको लगा यहाँ बोर होंगे, क्यों ना चल के मूवी ही देख ली जाए, पर ये होगा कैसे ? माँ को कैसे मनाया जाए , उस समय फ़िल्म के लिए पूछना, मतलब जैसे आप कोई ग़लत काम करने जा रहे हो । और ये हिमाक़त अब करेगा कौन? बन्ने तो पीछे हट गया, तो अब रवि ने सीधे भाभी से बात करना ठीक समझा - “ भाभी, ये बन्ने कह रहा था - भैया एक फ़िल्म तो दिखा दो, फिर कब मथुरा आना होगा? वैसे भी यहाँ क्या काम है ? ” भाभी ने रवि को देखा और पीछे खड़े बन्ने को घूरा बन्ने दरवाज़े के पीछे छिप गया, फिर बोली “ठीक है भैया जी, चले तो जाओ, लेकिन सुना है, मथुरा में दही-भल्ले बहुत अच्छे मिलते है, आते हुए लेते आना और समय से ही आ जाना।” रवि खुश होते हुए बोला - “जो हुक्म भाभी !“ तभी पीछे से पारो (बहन) चिल्लाई “हाँ-हाँ, चढ़ा लो इसको सर पे, फिर मत बोलना हाथ से निकल गया और सुन, मेरे लिए मत लाना रिश्वत के दही-भल्ले, क्योंकि मैं तो माँ को बताऊँगी और घर जाते ही भैया को भी।“
रवि कुछ बोलता उससे पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए आँखो से ही इशारा कर दिया और रवि, बन्ने सहित वहाँ से चुप-चाप निकल लिया ।
रवि ने सबसे पहले दो दही भल्ले लिए और दोनो ने वही खा लिए फिर, दो बँधवा लिए क्योंकि रात को 9 बजे शो के बाद पता नहीं मिलते या नहीं ? पूरे तीन घंटे तक रवि उन दही-भल्ले को गोद में सम्भाले बैठा रहा ।
अब 4:30 बजे का निकला रवि 9:30 बजे धर्मशाला पहुँचा, वहाँ जाते ही बड़ी ख़ुशी से उसने भाभी को दही भल्ले थमाए, पर भाभी ने झल्लाते हुए खाने से मना कर दिया, रवि को लगा ऐसा क्या हुआ ? पूछ के भी गया था और जो बोला वो ही लाया हूँ, तीन घंटे तक इनको गोद में लेकर बैठा रहा । उसे ग़ुस्सा तो बहुत आया । पर कुछ बोला नहीं, शायद ये सोच के, कि छोड़ो, भाभी पेट से है । तो मूड बदलता रहता है, इनको परेशान नहीं करेंगे। फिर जब बाहर निकला तो पारो खड़ी मुस्कुरा रही थी। रवि उसको भी उसके दही-भल्ले दिए पर उसने भी मना कर दिया। रवि को समझते बिल्कुल समय नहीं लगा, कि पीछे क्या खेल हुआ होगा, माँ और भाभी के बीच। तभी अंदर से भाभी की आवाज़ आयी “ भैया जी, आप दोनो मिलकर खा लो इनको तो, फेंक मत देना कहीं ग़ुस्से में, बहुत महँगे है मथुरा के दही भल्ले।” और ऐसा लगा जैसे भाभी अंदर हँस रही हो।
अगले दिन सुबह सबने तय समय पर ट्रेन ले ली और यात्रा आगे बढ़ी, अचानक रवि के पेट में ज़ोरों का दर्द शुरू हो गया और उल्टी-दस्त शुरू हो गए। सभी लोग परेशान हो रहे थे, और अपने अपने नुस्ख़े बता रहे थे। रवि दर्द में कराह रहा था और किसी को कोई उपाय नहीं सुझता था। वो ट्रेन के फ़्लोर पर लेट गया था। तभी एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी और एक सहाब अपने नौकर के साथ उस ट्रेन में चढ़े । ट्रेन में थोड़ी भीड़ थी, तो उनका पाँव रवि को छू गया और तभी रवि की माँ ने डाँटना शुरू किया “अरे! दिखाई नहीं देता क्या ? चढ़े ही जा रहे हो, वैसे ही मेरा बेटा दर्द में बिलख रहा है और तुम अन्धों की तरह ऊपर ही आ रहे हो।” पारो ने भी साहब को ग़ुस्से से देखा । साहब कुछ बोल पाते उससे पहले ही भाभी जैसे-तैसे धीरे से उठी और बोली “देखिए बुरा नहीं मानिएगा भाईसाहब, भैया जी की तबियत ख़राब हैं, मथुरा से थोड़ा आगे चलते ही इनके पेट में दर्द शुरू हो गया था, जो रुक नहीं रहा माताजी परेशान है तो …” इतने में सहाब नीचे बैठे, रवि के पेट को हाथ लगाया, उठे और जंक्शन पर उतर गए। फिर कुछ देर बाद वापस आए, उनके हाथ में एक शीशी थी जिस पर लिखा था, अमृत धारा। उन्होंने कुछ बूँद, थोड़ी चीनी में मिलाई और रवि को खिला दिया। फिर वही पास में बैठ गए, कुछ देर बाद रवि ठीक महसूस कर रहा था। सबने सहाब की बहुत प्रशंसा की । पर सहाब एक शब्द भी नहीं बोले, बस हाथ जोड़ कर अभिवादन किया।
रात के 9 बज चुके थे और ट्रेन काशगंज पहुँच गयी थी और सभी सब उतर गए। रवि धन्यवाद ज्ञापित करने के सहाब के पास पहुँचा और उनके पाँव छुएँ। साहब ने रवि से पूछा “तो कहाँ जाएँगे आप ? बाबू।” “जी हमको ईंटा जाना है” रवि ने जवाब दिया “रात में कैसे जाएँगे ?” साहब ने चिंता ज़ाहिर की “जी, अभी तो नहीं, सुबह ही बस से निकलना होगा, तब तक यही रुकेंगे।” “अगर आप सबको कोई समस्या नहीं हो, तो आप लोग मेरे घर चलिए, वहाँ से सुबह निकल जाइएगा।” “जी नहीं सब हो जाएगा, आपने जो किया उसके लिए मैं आभारी हूँ “ फिर रवि ने जाकर सबको सहाब का प्रस्ताव बताया और साथ ही अपना जवाब भी। माँ बोली- “अच्छा किया, ऐसे किसी के घर नहीं जा सकते।” थोड़ा रुककर माँ फिर बोली “अरे, ऐसे कैसे चले जाए किसी के घर ?, रात हो रही है तीन-तीन महिलायें है और भाभी तो गर्भवती भी है। तभी बन्ने बोला “ माताजी, दो पुरुष भी तो है, आपके साथ।” इतने में सब हँस दिए । उनकी बाते साहब के कान तक जा रही थी, तभी सहाब उनके पास गए, तो उनके साथ एक लड़की और एक महिला भी थी। सहाब ने परिचय कराया “जी ये मेरी अर्धांगिनी है, सरयू और ये मेरी बेटी है, शांता ।” “माताजी चलिए, हमारे घर चलिए, सुबह निकल जाइएगा ।” सरयू की आवाज़ में पता नहीं क्या जादू था, कि माँ ने एक बार में हाई हामी भर दी।
बन्ने और रवि तो बहुत प्रसन्न हुए, उनको लगा बढ़िया भोजन मिल जाएगा, साथ ही नींद भी निकाल लेंगे, यहाँ कहाँ पड़े रहते जंक्शन पर ? तो बन्ने झट से सामान उठा लिया और हो लिया सहाब के नौकर के साथ-साथ। रवि ने परिवार सहित सहाब के घर रात निकाली, साहब सरकारी ठेकेदार थे, उनकी बहुत बड़ी कोठी थी, बहुत दबदबा था काशगंज में। सहाब के परिवार ने उनका बहुत आदर सत्कार किया, बहुत बाते भी हुई । जब तक वो लोग रुके ठेकेदार सहाब के मुँह पर एक ही नाम रहता था "शांता"। कोई भी काम हो छोटा या बड़ा, बस दो ही आवाज़ पूरी कोठी में गूंजती थी एक थी "शांता" और दूसरी थी "जी बाबू जी, आई " रात निकालकर, फिर सुबह सभी ने सहाब के परिवार से विदा ली व धन्यवाद ज्ञापित किया।
कुछ ही घंटो में सब ईंटा में थे, वहाँ भैया इंतज़ार कर रहे थे और जब उन्हें रात के ठहरने की बात पता चली, तो बहुत भड़के । फिर रवि की माँ मतलब भैया की चाची ने सारा वक़या विस्तार से बताया, तब वो शांत हुए। भैया बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनके पिताजी और चाचा जी दोनो के जाने के बाद, उन्होंने ही परिवार सम्भाला था। रवि, भैया के चाचा का ही लड़का था। भैया ने ठेकेदार सहाब का पता लगवाया और उनको एक पत्र लिखा और उनको धन्यवाद ज्ञापित किया।
कुछ महीने बीते।[Text Wrapping Break]रवि शाम को घर पहुँचा, तो देखा घर के बाहर एक बग्गी सी खड़ी है, जो अमूमन बड़े लोग ही उपयोग करते थे, कुछ लोग घर में बैठे है, भैया भी आज दुकान से जल्दी आ गए है। जैसे उसने ठीक से देखा, तो वही ठेकेदार सहाब कुछ लोगों के साथ आए हुए हैं । रवि ने उनको प्रणाम किया और तभी उसके कानो में सहाब के काका के, ये शब्द सुनाई पड़े - “हम चाहते है शांता इस घर का हिस्सा बने ।” रवि को ये सब समझते देर ना लगी, कि शादी की बात हो रही हैं, उधर बन्ने खड़ा-खड़ा रवि को देखकर, मुस्कुराते हुए आँखो से ही छेड़ रहा था। भैया ने ठेकेदार जी को उत्तर दिया “देखिए ठेकेदार सहाब आपकी बात तो ठीक है, लेकिन अभी रवि बहुत छोटा है, पढ़ ही रहा है, अभी तो कॉलेज करना है, शांता भी तो छोटी है और हमने इस बारे में कुछ नहीं सोचा। तो आप हमें कृपया असमंजस में नहीं डालिए।”
“ आपकी बात में मानता हूँ पंडित जी, परंतु हम तो अभी शादी कर लेते है, गौना बाद में कर लीजिएगा, हमें कोई जल्दी नहीं है और फिर हमें…..” शकुंतला देवी (माँ) दोनो की बाते सुन रही थी, फिर एकदम बात काटते हुए बोली “ ठेकेदार सहाब, आपके प्रस्ताव का हम आदर करते है, परंतु अभी अनुकूलता नहीं है, आशा करती हूँ, आप विषय की गम्भीरता को समझेंगे...” ठेकेदार सहाब समझाने की दृष्टि से बोले “परंतु पंडित जी !……”
इतने में शकुंतला देवी ने आवाज़ लगायी “बन्ने! भोजन में इतना विलम्ब क्यों हो रहा हैं? फिर ठेकेदार साहब से बोली "ठेकेदार सहाब हम आपके आभारी है, कि आपने हमें इस योग्य समझा। चलिए हाथ मुँह धो लीजिए, भोजन लग गया है, तब तक मैं थोड़ी व्यवस्थाएँ देख लूँ ” और माँ अपनी कुर्सी से उठ गयी । सब समझ गए थे, कि कोई इस प्रस्ताव से ख़ुश नहीं है।
ठेकेदार साहब अब कुछ नहीं बोले, बस अपनी पत्नी सरयू व चाचा की ओर देखा । फिर भोजन के लिए उठ गए, भोजन किया, और सबसे विदा लेकर, रवाना हो गए काशगंज के लिए।
रास्ते में सरयू ने बोलना शुरू किया :- “क्या लोग है ! आप तो बोले थे, अच्छे लोग है। ऐसी सास ढूँढी है, आपने मेरी शांता के लिए , वाह ठेकेदार साहब, सीधे मुँह पर ही मना कर दिया आपको। देखा काका, काशगंज के ठेकेदार साहब कैसे चुप-चाप आ गए। ऐसे तो शेर बने फिरते है, कुछ बोल ही नहीं पाए। बड़े चौड़े होकर आए थे, सहाब !” और कहकर हँसने लगी । काका धीमे-धीमे मुस्कुरा रहे थे । ठेकेदार सहाब भी एकदम शांत बिना किसी उथल-पुथल के मुस्कुराते हुए बोले “सौभाग्य होगा शांत का, अगर ये परिवार उसको मिले।“ “कैसे मिलेगा सहाब, उठवाओगे क्या अब छोरे को ?” और फिर हँसने लगी, काका साथ दिए जा रहे थे और अब तो ताँगे वाला भी हँस पड़ा।
इस बात को कुछ दिन बीत गए। बात आयी गयी हो गयी।
अचानक एक दिन रवि बीमार पड़ गया, बुख़ार था कि टूटने का नाम नहीं ले रहा था। उसके बीमारी में ही क़रीब 25 दिन गुजर गए थे। रवि को पीलिया हो गया था ।उस समय स्वास्थ्य सुविधाएँ अधिक नहीं हुआ करती थी। बुरी तरह से शरीर जर्जर हो चला था। ऐसा लगने लगा था कि शायद अब रवि नहीं बचेगा। सब बहुत चिंता में थे, पता नहीं क्या होगा? तभी एक दिन रवि के घर के बाहर एक ताँगा आकर रुका, पारो बाहर की तरफ़ दौड़ी और बाहर से ही चिल्लाई “माँ, ठेकेदार सहाब आए है ।”
माँ ने दरवाज़े की ओर देखा, तो ठेकेदार सहाब एक बुजुर्ग के साथ अंदर की ओर आ रहे थे। ठेकेदार सहाब ने हाथ जोड़ते हुए कहा “प्रणाम ! कैसे है रवि, सुना है, बहुत बीमार है, एक वैध्य जी को साथ ले आया हूँ, अगर आपकी रज़ामंदी हो तो रवि को देखने दीजिए।”
माँ बोली “ आपका कैसे आना हुआ? आपको किसने सूचना की?"
“जी सूचना का तो क्या है? जब आप मुझे पत्र भिजवा सकते है, मैं यहाँ रिश्ते के लिए आ सकता हूँ, तो आज का आना आश्चर्य जैसा नहीं होना चाहिए।” ठेकेदार साहब बोले।
“देखिए, रवि की हालत बहुत ज़्यादा ख़राब है, बहुत दिखाया पर कोई उपचार काम ही नहीं कर रहा, पता नहीं क्या होगा, परंतु आप ये सब करके क्या करना चाह रहे है? आपको हम जवाब दे तो चुके है।” शकुंतला देवी (माँ) के शब्दों से विवशता में लिपटा हुआ स्वाभिमान बाहर आ रहा था ।
अब ठेकेदार सहाब ने शकुंतला देवी की आँखो में आँखे डाल कर आक्रोश को रोकते हुए, विनम्रता से कहा “देखिए, मैं नहीं चाहता - कोई ये कहे, कि शांता का रिश्ता आया था, उसके बाद रवि का जीवन इस दुविधा में आया और अब अगर कुछ अशुभ हुआ, तो शांता से उसे जोड़ा जाए। रही बात रिश्तों की तो वो आप और हम ना जोड़ सकते है, ना तोड़ सकते है । जो जब होना होगा, होगा । आप और हम तो निम्मित्त मात्र है।”
शकुंतला देवी कमरे के दरवाज़े के आगे से बिना कुछ कहे हट गयी और बन्ने को कुछ खाने-पीने को लाने के लिए आवाज़ लगायी ।
वैद्य जी ने अपना परीक्षण किया और शकुंतला देवी को निर्देश देते हुए कमरे से बाहर निकले । वैद्य जी की बात पूरी होने के बाद शकुंतला देवी ने भोजन के लिए निवेदन किया। ठेकेदार सहाब ने हाथ जोड़कर कहा “ बिल्कुल, हम भोजन करते, पर अभी आप रवि का ख़याल रखिए। हमें जल्दी जाना होगा, वैद्य जी बहुत मुश्किल से मेरे बार बार निवेदन पर समय निकाल कर आए है। हम ये शिष्टाचार फिर कभी ज़रूर निभा लेंगे, अभी समय का आभाव है । आशा करता हूँ, आप विषय को समझेंगी। अभी चलना होगा। धन्यवाद !“
बाहर निकलते हुए, ठेकेदार सहाब और रवि के भैया दरवाज़े पर आमने-सामने हो गए । दोनो ने एक दूसरे का मुस्कुराकर नमस्कार के साथ अभिवादन किया।ठेकेदार सहाब बग्गी पर चढ़े और निकल गए । आज ठेकेदार सहाब के शब्दों में विवशता नहीं थी, उस दिन एक बाप आया था बेटी देने, आज एक बाप आया था - बेटी की लाज बचाने।
अब धीरे-धीरे दवाई ने काम किया, रवि के हालत में सुधार था और कुछ 15 दिन में ही रवि ठीक हो गया। अब सब सामान्य हो चला था।
कुछ एक वर्ष बीता और शकुंतला देवी के गुरु के यहाँ यज्ञ का आयोजन किया गया। शकुंतला देवी ने तय किया, कि गंगा किनारे होने वाले इस अनुष्ठान में भाग लिया जाए, क्योंकि घर में एक मेहमान आ चुका था और रवि के ठीक होने के कारण भी, रवि के हाथों एक यज्ञ करवाना था । तो तय दिन पर निकल गए सभी, वही सब जो पहले यमुना स्नान के लिए दिल्ली गए थे। ये भी संजोग ही था। सब सकुशल पहुँचे, सभी कार्य पूर्ण हुए और जैसे ही गंगा स्नान कर सब लौट रहे थे, तभी सीढ़ियाँ चढ़ते समय, रवि ने देखा - एक कोई जानी-पहचानी सी युवती अपनी माँ के साथ दो सीढ़ी ऊपर, पीछे गंगा मैया को देखते हुए चढ़ रही थी, जैसे ही साथ चल रही लड़की की माँ भी पलटी, रवि थोड़ा हैरान हो गया। फिर रुक गया, रवि को रुका देख सब रुके और सबने देखा ठेकेदार सहाब का परिवार दो सीढ़ी ऊपर चल रहा था।दोनो परिवार रुके और एक दूसरे को देखा, सभी ऐसे मुस्कुराए जैसे कोई पुराने मिले हो।आँखो के मिलाप के बाद ठेकेदार सहाब बोले “और, रवि बाबू कैसे हो ?”
“मैं तो ठीक हूँ, आप बताए, आप सब कैसे है? , आप लोग भी स्नान करने आए है ?”
"हाँ, गुरुजी की मान्यता है, तो आ गए आहुति देने, वैसे भोजन प्रसादी का कार्यभार सम्भालने का आदेश दिया था गुरुजी ने, तो आप लोग भी चलिए प्रसादी ग्रहण कीजिए ।”
बन्ने खटाक से बोला “हाँ-हाँ समय भी हो चला है, भोजन तो करना ही है…”
तभी शकुंतला देवी ने बन्ने की ओर घूरकर देखा और किसी ने कोई जवाब नहीं दिया । शकुंतला देवी बोली “ठेकेदार सहाब कुछ कार्य अधूरे है, पूरे करके आते है “ तभी सरयू बोली “जी आगे वाले घाट के थोड़ा ऊपर वो जो टेंट लगा है, बस वही आ जाइएगा।” और ठेकेदार सहाब का परिवार निकल गया । भाभी बोली “भले लोग है, वरना कौन ऐसे भोजन के लिए पूछता है? “ “क्या काम बाक़ी है माँ ?“ रवि ने बोला
“अरे, काम क्या बाक़ी है? तुम सब पागल हो गए हो क्या ? हम वहाँ भोजन नहीं करेंगे, तुमको पता नहीं क्या ? कितना मुश्किल से पीछा छुड़वाया है?" माँ ने जवाब दिया
“ पर भोजन करने में तो कोई आपत्ति नहीं है, वैसे भी वो भोजन पांडाल तो गुरुजी के सभी भक्तों के लिए लगा है। माना सब ठेकेदार जी के खर्चे पर हो रहा है, परंतु अगर वो ना होते, तो क्या हम प्रसादी ना लेते ? ” भाभी बोली । सबने अपने-अपने तर्क दिए और शकुंतला देवी (माँ) मान गयी और बोली “ठीक है, तुरंत भोजन करो और चलो।” कुछ देर बाद सब लोग पांडाल पहुँच गए और पंगत लगाकर बैठ गए। ठेकेदार साहब स्वयं सब व्यवस्थाएँ देख रहे थे, पास ही कुछ सन्यासी लोग बैठे भोजन कर रहे थे। रवि ने देखा पांडाल के बाहर से कोई अंदर झांक रहा है, पर कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा था कौन है ?
तभी उन सन्यासियों में से एक बड़ा सन्यासी, रवि की ओर इशारा करते हुए शकुन्तला देवी से बोला “बेटी, ये तेरा बच्चा है?” शकुंतला देवी ने जवाब दिया “जी महाराज”
सन्यासी बोला “कुछ दिनों पहले ही तेरा बच्चा किसी गम्भीर और गहरी बीमारी से बाहर आया है, किसी ओर के भाग्य से हुआ है ये सब, वरना इसका बचना मुश्किल था। नया जीवन मिला है इसको। सौभाग्यशाली है तू !” इतना बोलकर सन्यासी चुप हो गया, सबने सुना पर कोई कुछ नहीं बोला।
कुछ देर बाद सन्यासी भोजन करके उठ गए, तब शकुंतला देवी ने पांडाल के बाहर से देख रही उन आँखो को बहुत ही तेज आवाज़ में बोला “बाहर से क्या देख रही है ? अंदर आ “ सब एकदम से चौंक गए, देखा कुछ देर बाद ठेकेदार सहाब की लड़की अपनी दो बहनो के साथ अंदर आ गयी । शकुंतला देवी ने डाँटते हुए, और तेज आवाज़ में कहा “इधर आ मेरे पास “
बच्ची ने ठेकेदार सहाब की और देखा, डाँट के कारण उसकी आँखें छलक चुकी थी, उसे लगा ठेकेदार सहाब कुछ बोलेंगे ।पर ठेकेदार सहाब कुछ नहीं बोले, ना सरयू ने कुछ कहा, दोनो खड़े देख रहे थे ।
शांता धीरे धीरे शकुंतला देवी के पास जाकर नीचे गर्दन किए खड़ी हो गयी। शकुंतला देवी ने अपने गले से एक चैन निकाली और उसका मुँह को ऊपर कर, उसे पहनाते हुए बोली “ठेकेदार सहाब ! आपकी शांता को मेरे परिवार का हिस्सा बनाने के लिए, कुछ ही दिनों में लेने आऊँगी। आप तैयारियाँ करो" फिर शांता को गले से लगा लिया ।
ठेकेदार सहाब ने अपने हाथ में लिए जग को नीचे रखा और हाथ जोड़े खड़े हो गए । शकुंतला देवी बच्ची को साथ लिए उनकी तरफ़ बढ़ी और उनके हाथ नीचे करते हुए बोली आपके जीवन भर की कमाई और सम्पत्ति साथ लिए जा रही हूँ और कुछ नहीं चाहिए । और पास खड़ी सरयू को अपने बग़ल से गले लगा लिया । सरयू की आँखे भर आयी, जैसे आज ही विदाई हो रही हो। फिर बच्ची को शकुंतला देवी हँसते हुए बोली “देख! रोज़ ऐसे ही डाँट सुननी पड़ेगी, सुन लेगी ना?” और सभी हँसने लगे । शांता शर्माते हुए बाहर भाग गयी। अंत में शकुंतला देवी बोली “ठेकेदार सहाब ! आपकी परख और परवरिश दोनो बहुत अच्छी है । चलिए, अब हम निकलेंगे, आप जब उचित समझे समय निकाल कर परिवार सहित आइएगा साथ भोजन करेंगे ।अब तो शिष्टाचार निभाएँगे ?” ठेकेदार सहाब ने हल्की नम आँखो से सरयू की तरफ़ देखा, और सरयू ने छलकती आँखों से ही ठेकेदार सहाब को उनके विश्वास की जीत की बधाई दे दी ।
॥कोशिश है हमारी आपकी कशिश बनी रहे॥...
Copyright @ रोहित प्रधान
रवि अपनी भाभी के बहुत क़रीब था, क्योंकि पापा और ताऊ के चले जाने के बाद, रवि के बड़े भैया ने ही सब सम्भाल रखा था। 20 रुपए की नौकरी से शुरू हुए भैया, ने अपने खुद के काम तक का सफ़र, बहुत मेहनत और विपरीत परिस्थितियों में किया था। जब भैया की शादी हुई, तब रवि मात्र 5 वर्ष का था। भाभी ने माँ से भी बढ़कर स्नेह दिया था, रवि के लिए वो एक मित्र भी थी और माँ समान भाभी भी ।
मथुरा में एक ओर मौक़ा था मस्ती का, तो रवि और बन्ने ने मूवी का प्लान बनाया। उनको लगा यहाँ बोर होंगे, क्यों ना चल के मूवी ही देख ली जाए, पर ये होगा कैसे ? माँ को कैसे मनाया जाए , उस समय फ़िल्म के लिए पूछना, मतलब जैसे आप कोई ग़लत काम करने जा रहे हो । और ये हिमाक़त अब करेगा कौन? बन्ने तो पीछे हट गया, तो अब रवि ने सीधे भाभी से बात करना ठीक समझा - “ भाभी, ये बन्ने कह रहा था - भैया एक फ़िल्म तो दिखा दो, फिर कब मथुरा आना होगा? वैसे भी यहाँ क्या काम है ? ” भाभी ने रवि को देखा और पीछे खड़े बन्ने को घूरा बन्ने दरवाज़े के पीछे छिप गया, फिर बोली “ठीक है भैया जी, चले तो जाओ, लेकिन सुना है, मथुरा में दही-भल्ले बहुत अच्छे मिलते है, आते हुए लेते आना और समय से ही आ जाना।” रवि खुश होते हुए बोला - “जो हुक्म भाभी !“ तभी पीछे से पारो (बहन) चिल्लाई “हाँ-हाँ, चढ़ा लो इसको सर पे, फिर मत बोलना हाथ से निकल गया और सुन, मेरे लिए मत लाना रिश्वत के दही-भल्ले, क्योंकि मैं तो माँ को बताऊँगी और घर जाते ही भैया को भी।“
रवि कुछ बोलता उससे पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए आँखो से ही इशारा कर दिया और रवि, बन्ने सहित वहाँ से चुप-चाप निकल लिया ।
रवि ने सबसे पहले दो दही भल्ले लिए और दोनो ने वही खा लिए फिर, दो बँधवा लिए क्योंकि रात को 9 बजे शो के बाद पता नहीं मिलते या नहीं ? पूरे तीन घंटे तक रवि उन दही-भल्ले को गोद में सम्भाले बैठा रहा ।
अब 4:30 बजे का निकला रवि 9:30 बजे धर्मशाला पहुँचा, वहाँ जाते ही बड़ी ख़ुशी से उसने भाभी को दही भल्ले थमाए, पर भाभी ने झल्लाते हुए खाने से मना कर दिया, रवि को लगा ऐसा क्या हुआ ? पूछ के भी गया था और जो बोला वो ही लाया हूँ, तीन घंटे तक इनको गोद में लेकर बैठा रहा । उसे ग़ुस्सा तो बहुत आया । पर कुछ बोला नहीं, शायद ये सोच के, कि छोड़ो, भाभी पेट से है । तो मूड बदलता रहता है, इनको परेशान नहीं करेंगे। फिर जब बाहर निकला तो पारो खड़ी मुस्कुरा रही थी। रवि उसको भी उसके दही-भल्ले दिए पर उसने भी मना कर दिया। रवि को समझते बिल्कुल समय नहीं लगा, कि पीछे क्या खेल हुआ होगा, माँ और भाभी के बीच। तभी अंदर से भाभी की आवाज़ आयी “ भैया जी, आप दोनो मिलकर खा लो इनको तो, फेंक मत देना कहीं ग़ुस्से में, बहुत महँगे है मथुरा के दही भल्ले।” और ऐसा लगा जैसे भाभी अंदर हँस रही हो।
अगले दिन सुबह सबने तय समय पर ट्रेन ले ली और यात्रा आगे बढ़ी, अचानक रवि के पेट में ज़ोरों का दर्द शुरू हो गया और उल्टी-दस्त शुरू हो गए। सभी लोग परेशान हो रहे थे, और अपने अपने नुस्ख़े बता रहे थे। रवि दर्द में कराह रहा था और किसी को कोई उपाय नहीं सुझता था। वो ट्रेन के फ़्लोर पर लेट गया था। तभी एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी और एक सहाब अपने नौकर के साथ उस ट्रेन में चढ़े । ट्रेन में थोड़ी भीड़ थी, तो उनका पाँव रवि को छू गया और तभी रवि की माँ ने डाँटना शुरू किया “अरे! दिखाई नहीं देता क्या ? चढ़े ही जा रहे हो, वैसे ही मेरा बेटा दर्द में बिलख रहा है और तुम अन्धों की तरह ऊपर ही आ रहे हो।” पारो ने भी साहब को ग़ुस्से से देखा । साहब कुछ बोल पाते उससे पहले ही भाभी जैसे-तैसे धीरे से उठी और बोली “देखिए बुरा नहीं मानिएगा भाईसाहब, भैया जी की तबियत ख़राब हैं, मथुरा से थोड़ा आगे चलते ही इनके पेट में दर्द शुरू हो गया था, जो रुक नहीं रहा माताजी परेशान है तो …” इतने में सहाब नीचे बैठे, रवि के पेट को हाथ लगाया, उठे और जंक्शन पर उतर गए। फिर कुछ देर बाद वापस आए, उनके हाथ में एक शीशी थी जिस पर लिखा था, अमृत धारा। उन्होंने कुछ बूँद, थोड़ी चीनी में मिलाई और रवि को खिला दिया। फिर वही पास में बैठ गए, कुछ देर बाद रवि ठीक महसूस कर रहा था। सबने सहाब की बहुत प्रशंसा की । पर सहाब एक शब्द भी नहीं बोले, बस हाथ जोड़ कर अभिवादन किया।
रात के 9 बज चुके थे और ट्रेन काशगंज पहुँच गयी थी और सभी सब उतर गए। रवि धन्यवाद ज्ञापित करने के सहाब के पास पहुँचा और उनके पाँव छुएँ। साहब ने रवि से पूछा “तो कहाँ जाएँगे आप ? बाबू।” “जी हमको ईंटा जाना है” रवि ने जवाब दिया “रात में कैसे जाएँगे ?” साहब ने चिंता ज़ाहिर की “जी, अभी तो नहीं, सुबह ही बस से निकलना होगा, तब तक यही रुकेंगे।” “अगर आप सबको कोई समस्या नहीं हो, तो आप लोग मेरे घर चलिए, वहाँ से सुबह निकल जाइएगा।” “जी नहीं सब हो जाएगा, आपने जो किया उसके लिए मैं आभारी हूँ “ फिर रवि ने जाकर सबको सहाब का प्रस्ताव बताया और साथ ही अपना जवाब भी। माँ बोली- “अच्छा किया, ऐसे किसी के घर नहीं जा सकते।” थोड़ा रुककर माँ फिर बोली “अरे, ऐसे कैसे चले जाए किसी के घर ?, रात हो रही है तीन-तीन महिलायें है और भाभी तो गर्भवती भी है। तभी बन्ने बोला “ माताजी, दो पुरुष भी तो है, आपके साथ।” इतने में सब हँस दिए । उनकी बाते साहब के कान तक जा रही थी, तभी सहाब उनके पास गए, तो उनके साथ एक लड़की और एक महिला भी थी। सहाब ने परिचय कराया “जी ये मेरी अर्धांगिनी है, सरयू और ये मेरी बेटी है, शांता ।” “माताजी चलिए, हमारे घर चलिए, सुबह निकल जाइएगा ।” सरयू की आवाज़ में पता नहीं क्या जादू था, कि माँ ने एक बार में हाई हामी भर दी।
बन्ने और रवि तो बहुत प्रसन्न हुए, उनको लगा बढ़िया भोजन मिल जाएगा, साथ ही नींद भी निकाल लेंगे, यहाँ कहाँ पड़े रहते जंक्शन पर ? तो बन्ने झट से सामान उठा लिया और हो लिया सहाब के नौकर के साथ-साथ। रवि ने परिवार सहित सहाब के घर रात निकाली, साहब सरकारी ठेकेदार थे, उनकी बहुत बड़ी कोठी थी, बहुत दबदबा था काशगंज में। सहाब के परिवार ने उनका बहुत आदर सत्कार किया, बहुत बाते भी हुई । जब तक वो लोग रुके ठेकेदार सहाब के मुँह पर एक ही नाम रहता था "शांता"। कोई भी काम हो छोटा या बड़ा, बस दो ही आवाज़ पूरी कोठी में गूंजती थी एक थी "शांता" और दूसरी थी "जी बाबू जी, आई " रात निकालकर, फिर सुबह सभी ने सहाब के परिवार से विदा ली व धन्यवाद ज्ञापित किया।
कुछ ही घंटो में सब ईंटा में थे, वहाँ भैया इंतज़ार कर रहे थे और जब उन्हें रात के ठहरने की बात पता चली, तो बहुत भड़के । फिर रवि की माँ मतलब भैया की चाची ने सारा वक़या विस्तार से बताया, तब वो शांत हुए। भैया बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनके पिताजी और चाचा जी दोनो के जाने के बाद, उन्होंने ही परिवार सम्भाला था। रवि, भैया के चाचा का ही लड़का था। भैया ने ठेकेदार सहाब का पता लगवाया और उनको एक पत्र लिखा और उनको धन्यवाद ज्ञापित किया।
कुछ महीने बीते।[Text Wrapping Break]रवि शाम को घर पहुँचा, तो देखा घर के बाहर एक बग्गी सी खड़ी है, जो अमूमन बड़े लोग ही उपयोग करते थे, कुछ लोग घर में बैठे है, भैया भी आज दुकान से जल्दी आ गए है। जैसे उसने ठीक से देखा, तो वही ठेकेदार सहाब कुछ लोगों के साथ आए हुए हैं । रवि ने उनको प्रणाम किया और तभी उसके कानो में सहाब के काका के, ये शब्द सुनाई पड़े - “हम चाहते है शांता इस घर का हिस्सा बने ।” रवि को ये सब समझते देर ना लगी, कि शादी की बात हो रही हैं, उधर बन्ने खड़ा-खड़ा रवि को देखकर, मुस्कुराते हुए आँखो से ही छेड़ रहा था। भैया ने ठेकेदार जी को उत्तर दिया “देखिए ठेकेदार सहाब आपकी बात तो ठीक है, लेकिन अभी रवि बहुत छोटा है, पढ़ ही रहा है, अभी तो कॉलेज करना है, शांता भी तो छोटी है और हमने इस बारे में कुछ नहीं सोचा। तो आप हमें कृपया असमंजस में नहीं डालिए।”
“ आपकी बात में मानता हूँ पंडित जी, परंतु हम तो अभी शादी कर लेते है, गौना बाद में कर लीजिएगा, हमें कोई जल्दी नहीं है और फिर हमें…..” शकुंतला देवी (माँ) दोनो की बाते सुन रही थी, फिर एकदम बात काटते हुए बोली “ ठेकेदार सहाब, आपके प्रस्ताव का हम आदर करते है, परंतु अभी अनुकूलता नहीं है, आशा करती हूँ, आप विषय की गम्भीरता को समझेंगे...” ठेकेदार सहाब समझाने की दृष्टि से बोले “परंतु पंडित जी !……”
इतने में शकुंतला देवी ने आवाज़ लगायी “बन्ने! भोजन में इतना विलम्ब क्यों हो रहा हैं? फिर ठेकेदार साहब से बोली "ठेकेदार सहाब हम आपके आभारी है, कि आपने हमें इस योग्य समझा। चलिए हाथ मुँह धो लीजिए, भोजन लग गया है, तब तक मैं थोड़ी व्यवस्थाएँ देख लूँ ” और माँ अपनी कुर्सी से उठ गयी । सब समझ गए थे, कि कोई इस प्रस्ताव से ख़ुश नहीं है।
ठेकेदार साहब अब कुछ नहीं बोले, बस अपनी पत्नी सरयू व चाचा की ओर देखा । फिर भोजन के लिए उठ गए, भोजन किया, और सबसे विदा लेकर, रवाना हो गए काशगंज के लिए।
रास्ते में सरयू ने बोलना शुरू किया :- “क्या लोग है ! आप तो बोले थे, अच्छे लोग है। ऐसी सास ढूँढी है, आपने मेरी शांता के लिए , वाह ठेकेदार साहब, सीधे मुँह पर ही मना कर दिया आपको। देखा काका, काशगंज के ठेकेदार साहब कैसे चुप-चाप आ गए। ऐसे तो शेर बने फिरते है, कुछ बोल ही नहीं पाए। बड़े चौड़े होकर आए थे, सहाब !” और कहकर हँसने लगी । काका धीमे-धीमे मुस्कुरा रहे थे । ठेकेदार सहाब भी एकदम शांत बिना किसी उथल-पुथल के मुस्कुराते हुए बोले “सौभाग्य होगा शांत का, अगर ये परिवार उसको मिले।“ “कैसे मिलेगा सहाब, उठवाओगे क्या अब छोरे को ?” और फिर हँसने लगी, काका साथ दिए जा रहे थे और अब तो ताँगे वाला भी हँस पड़ा।
इस बात को कुछ दिन बीत गए। बात आयी गयी हो गयी।
अचानक एक दिन रवि बीमार पड़ गया, बुख़ार था कि टूटने का नाम नहीं ले रहा था। उसके बीमारी में ही क़रीब 25 दिन गुजर गए थे। रवि को पीलिया हो गया था ।उस समय स्वास्थ्य सुविधाएँ अधिक नहीं हुआ करती थी। बुरी तरह से शरीर जर्जर हो चला था। ऐसा लगने लगा था कि शायद अब रवि नहीं बचेगा। सब बहुत चिंता में थे, पता नहीं क्या होगा? तभी एक दिन रवि के घर के बाहर एक ताँगा आकर रुका, पारो बाहर की तरफ़ दौड़ी और बाहर से ही चिल्लाई “माँ, ठेकेदार सहाब आए है ।”
माँ ने दरवाज़े की ओर देखा, तो ठेकेदार सहाब एक बुजुर्ग के साथ अंदर की ओर आ रहे थे। ठेकेदार सहाब ने हाथ जोड़ते हुए कहा “प्रणाम ! कैसे है रवि, सुना है, बहुत बीमार है, एक वैध्य जी को साथ ले आया हूँ, अगर आपकी रज़ामंदी हो तो रवि को देखने दीजिए।”
माँ बोली “ आपका कैसे आना हुआ? आपको किसने सूचना की?"
“जी सूचना का तो क्या है? जब आप मुझे पत्र भिजवा सकते है, मैं यहाँ रिश्ते के लिए आ सकता हूँ, तो आज का आना आश्चर्य जैसा नहीं होना चाहिए।” ठेकेदार साहब बोले।
“देखिए, रवि की हालत बहुत ज़्यादा ख़राब है, बहुत दिखाया पर कोई उपचार काम ही नहीं कर रहा, पता नहीं क्या होगा, परंतु आप ये सब करके क्या करना चाह रहे है? आपको हम जवाब दे तो चुके है।” शकुंतला देवी (माँ) के शब्दों से विवशता में लिपटा हुआ स्वाभिमान बाहर आ रहा था ।
अब ठेकेदार सहाब ने शकुंतला देवी की आँखो में आँखे डाल कर आक्रोश को रोकते हुए, विनम्रता से कहा “देखिए, मैं नहीं चाहता - कोई ये कहे, कि शांता का रिश्ता आया था, उसके बाद रवि का जीवन इस दुविधा में आया और अब अगर कुछ अशुभ हुआ, तो शांता से उसे जोड़ा जाए। रही बात रिश्तों की तो वो आप और हम ना जोड़ सकते है, ना तोड़ सकते है । जो जब होना होगा, होगा । आप और हम तो निम्मित्त मात्र है।”
शकुंतला देवी कमरे के दरवाज़े के आगे से बिना कुछ कहे हट गयी और बन्ने को कुछ खाने-पीने को लाने के लिए आवाज़ लगायी ।
वैद्य जी ने अपना परीक्षण किया और शकुंतला देवी को निर्देश देते हुए कमरे से बाहर निकले । वैद्य जी की बात पूरी होने के बाद शकुंतला देवी ने भोजन के लिए निवेदन किया। ठेकेदार सहाब ने हाथ जोड़कर कहा “ बिल्कुल, हम भोजन करते, पर अभी आप रवि का ख़याल रखिए। हमें जल्दी जाना होगा, वैद्य जी बहुत मुश्किल से मेरे बार बार निवेदन पर समय निकाल कर आए है। हम ये शिष्टाचार फिर कभी ज़रूर निभा लेंगे, अभी समय का आभाव है । आशा करता हूँ, आप विषय को समझेंगी। अभी चलना होगा। धन्यवाद !“
बाहर निकलते हुए, ठेकेदार सहाब और रवि के भैया दरवाज़े पर आमने-सामने हो गए । दोनो ने एक दूसरे का मुस्कुराकर नमस्कार के साथ अभिवादन किया।ठेकेदार सहाब बग्गी पर चढ़े और निकल गए । आज ठेकेदार सहाब के शब्दों में विवशता नहीं थी, उस दिन एक बाप आया था बेटी देने, आज एक बाप आया था - बेटी की लाज बचाने।
अब धीरे-धीरे दवाई ने काम किया, रवि के हालत में सुधार था और कुछ 15 दिन में ही रवि ठीक हो गया। अब सब सामान्य हो चला था।
कुछ एक वर्ष बीता और शकुंतला देवी के गुरु के यहाँ यज्ञ का आयोजन किया गया। शकुंतला देवी ने तय किया, कि गंगा किनारे होने वाले इस अनुष्ठान में भाग लिया जाए, क्योंकि घर में एक मेहमान आ चुका था और रवि के ठीक होने के कारण भी, रवि के हाथों एक यज्ञ करवाना था । तो तय दिन पर निकल गए सभी, वही सब जो पहले यमुना स्नान के लिए दिल्ली गए थे। ये भी संजोग ही था। सब सकुशल पहुँचे, सभी कार्य पूर्ण हुए और जैसे ही गंगा स्नान कर सब लौट रहे थे, तभी सीढ़ियाँ चढ़ते समय, रवि ने देखा - एक कोई जानी-पहचानी सी युवती अपनी माँ के साथ दो सीढ़ी ऊपर, पीछे गंगा मैया को देखते हुए चढ़ रही थी, जैसे ही साथ चल रही लड़की की माँ भी पलटी, रवि थोड़ा हैरान हो गया। फिर रुक गया, रवि को रुका देख सब रुके और सबने देखा ठेकेदार सहाब का परिवार दो सीढ़ी ऊपर चल रहा था।दोनो परिवार रुके और एक दूसरे को देखा, सभी ऐसे मुस्कुराए जैसे कोई पुराने मिले हो।आँखो के मिलाप के बाद ठेकेदार सहाब बोले “और, रवि बाबू कैसे हो ?”
“मैं तो ठीक हूँ, आप बताए, आप सब कैसे है? , आप लोग भी स्नान करने आए है ?”
"हाँ, गुरुजी की मान्यता है, तो आ गए आहुति देने, वैसे भोजन प्रसादी का कार्यभार सम्भालने का आदेश दिया था गुरुजी ने, तो आप लोग भी चलिए प्रसादी ग्रहण कीजिए ।”
बन्ने खटाक से बोला “हाँ-हाँ समय भी हो चला है, भोजन तो करना ही है…”
तभी शकुंतला देवी ने बन्ने की ओर घूरकर देखा और किसी ने कोई जवाब नहीं दिया । शकुंतला देवी बोली “ठेकेदार सहाब कुछ कार्य अधूरे है, पूरे करके आते है “ तभी सरयू बोली “जी आगे वाले घाट के थोड़ा ऊपर वो जो टेंट लगा है, बस वही आ जाइएगा।” और ठेकेदार सहाब का परिवार निकल गया । भाभी बोली “भले लोग है, वरना कौन ऐसे भोजन के लिए पूछता है? “ “क्या काम बाक़ी है माँ ?“ रवि ने बोला
“अरे, काम क्या बाक़ी है? तुम सब पागल हो गए हो क्या ? हम वहाँ भोजन नहीं करेंगे, तुमको पता नहीं क्या ? कितना मुश्किल से पीछा छुड़वाया है?" माँ ने जवाब दिया
“ पर भोजन करने में तो कोई आपत्ति नहीं है, वैसे भी वो भोजन पांडाल तो गुरुजी के सभी भक्तों के लिए लगा है। माना सब ठेकेदार जी के खर्चे पर हो रहा है, परंतु अगर वो ना होते, तो क्या हम प्रसादी ना लेते ? ” भाभी बोली । सबने अपने-अपने तर्क दिए और शकुंतला देवी (माँ) मान गयी और बोली “ठीक है, तुरंत भोजन करो और चलो।” कुछ देर बाद सब लोग पांडाल पहुँच गए और पंगत लगाकर बैठ गए। ठेकेदार साहब स्वयं सब व्यवस्थाएँ देख रहे थे, पास ही कुछ सन्यासी लोग बैठे भोजन कर रहे थे। रवि ने देखा पांडाल के बाहर से कोई अंदर झांक रहा है, पर कुछ ठीक से समझ नहीं पा रहा था कौन है ?
तभी उन सन्यासियों में से एक बड़ा सन्यासी, रवि की ओर इशारा करते हुए शकुन्तला देवी से बोला “बेटी, ये तेरा बच्चा है?” शकुंतला देवी ने जवाब दिया “जी महाराज”
सन्यासी बोला “कुछ दिनों पहले ही तेरा बच्चा किसी गम्भीर और गहरी बीमारी से बाहर आया है, किसी ओर के भाग्य से हुआ है ये सब, वरना इसका बचना मुश्किल था। नया जीवन मिला है इसको। सौभाग्यशाली है तू !” इतना बोलकर सन्यासी चुप हो गया, सबने सुना पर कोई कुछ नहीं बोला।
कुछ देर बाद सन्यासी भोजन करके उठ गए, तब शकुंतला देवी ने पांडाल के बाहर से देख रही उन आँखो को बहुत ही तेज आवाज़ में बोला “बाहर से क्या देख रही है ? अंदर आ “ सब एकदम से चौंक गए, देखा कुछ देर बाद ठेकेदार सहाब की लड़की अपनी दो बहनो के साथ अंदर आ गयी । शकुंतला देवी ने डाँटते हुए, और तेज आवाज़ में कहा “इधर आ मेरे पास “
बच्ची ने ठेकेदार सहाब की और देखा, डाँट के कारण उसकी आँखें छलक चुकी थी, उसे लगा ठेकेदार सहाब कुछ बोलेंगे ।पर ठेकेदार सहाब कुछ नहीं बोले, ना सरयू ने कुछ कहा, दोनो खड़े देख रहे थे ।
शांता धीरे धीरे शकुंतला देवी के पास जाकर नीचे गर्दन किए खड़ी हो गयी। शकुंतला देवी ने अपने गले से एक चैन निकाली और उसका मुँह को ऊपर कर, उसे पहनाते हुए बोली “ठेकेदार सहाब ! आपकी शांता को मेरे परिवार का हिस्सा बनाने के लिए, कुछ ही दिनों में लेने आऊँगी। आप तैयारियाँ करो" फिर शांता को गले से लगा लिया ।
ठेकेदार सहाब ने अपने हाथ में लिए जग को नीचे रखा और हाथ जोड़े खड़े हो गए । शकुंतला देवी बच्ची को साथ लिए उनकी तरफ़ बढ़ी और उनके हाथ नीचे करते हुए बोली आपके जीवन भर की कमाई और सम्पत्ति साथ लिए जा रही हूँ और कुछ नहीं चाहिए । और पास खड़ी सरयू को अपने बग़ल से गले लगा लिया । सरयू की आँखे भर आयी, जैसे आज ही विदाई हो रही हो। फिर बच्ची को शकुंतला देवी हँसते हुए बोली “देख! रोज़ ऐसे ही डाँट सुननी पड़ेगी, सुन लेगी ना?” और सभी हँसने लगे । शांता शर्माते हुए बाहर भाग गयी। अंत में शकुंतला देवी बोली “ठेकेदार सहाब ! आपकी परख और परवरिश दोनो बहुत अच्छी है । चलिए, अब हम निकलेंगे, आप जब उचित समझे समय निकाल कर परिवार सहित आइएगा साथ भोजन करेंगे ।अब तो शिष्टाचार निभाएँगे ?” ठेकेदार सहाब ने हल्की नम आँखो से सरयू की तरफ़ देखा, और सरयू ने छलकती आँखों से ही ठेकेदार सहाब को उनके विश्वास की जीत की बधाई दे दी ।
॥कोशिश है हमारी आपकी कशिश बनी रहे॥...
Copyright @ रोहित प्रधान
Comments
Unknown on October 25,2023Nice
comment on November 26,2023check
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